Question 1 :
हिन्दी भाषा का आकलन करने में कौन-सा प्रश्न अधिक सहायक है ?
Question 3 :
<b>निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्न का उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए। </b> <br> <br> वाणी ही मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वश्रेष्ठ अलंकार है। वास्तव में वाणी के द्वारा ही मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान दूसरे व्यक्तियों से करता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के जीवन पर भी वाणी का अधिक प्रभाव पड़ता है; क्योंकि जो अपनी वाणी समुचित रूप में प्रयोग करते हैं, उन व्यक्तियों के लोगों से मधुर एवं आत्मीय सम्बन्ध बन जाते हैं। उनसे लोगों में कटुता की भावना व्याप्त हो जाती है। लोक-प्रसिद्ध कहावत है कि ‘‘बाताहिं हाथी पाइये, बातहिं हाथी पाँव’’। कवि ने कहा है- ‘‘कागा कासों लेत है, कोकिल काको देय। मीठी बोली बोल के जग अपनों करि लेय’’, मधुर वचन अमृत के तुल्य होता है जो मुरझाए जीवों में नए प्राण का संचार कर देता है। कटु वचन, चाहे सत्य से पूरित हो, कोई सुनना नहीं चाहता, इसीलिए सामाजिक, शिष्टाचार के नियामकों ने कहा है- ‘‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं।’’ <br> <br>कोयल और कौवे में मुख्य अन्तर- <br>
Question 6 :
बच्चे के घर की भाषा और विद्यालय की भाषा के बीच के संबंध को-
Question 8 :
<b>निम्नलिखित प्रश्न के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए-</b> <br>यौगिक शब्द है-
Question 9 :
<b>निम्नलिखित प्रश्न के उत्तर देने के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए।</b> <br> <br>बहुभाषिक कक्षा के संदर्भ में आप इनमें से किस गतिविधि को सर्वाधिक उचित समझते हैं?
Question 11 :
<b>गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों में सबसे उचित विकल्प चुनिए</b>: <br> तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम, वह जो हमें जीवनयापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्वितीय वह जो हमें जीना सिखाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह सम्भव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह परावलंबी हो माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य जाति या समाज पर। पहली विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है साथ ही विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारू रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। <br> वर्तमान भारत में दूसरी विद्या का प्राय अभाव दिखायी देता है, परन्तु पहली विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकापार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति ‘कु’ से ‘सु’ बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किन्तु कला, शिल्प आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है। <br> जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सौपनों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढियाँ एक के बाद एक आती है, इनमें व्यक्तिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारू- प्रसाद खड़ा करना असम्भव है। यह तो भवन की छत बनाकर नीव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ‘अन्न’ से ‘आनंद’ की ओर बढ़ने को जो ‘विद्या का सार’ कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था। <br>लेखक के अनुसार, वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को
Question 12 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्न के उत्तर के रूप में उचित विकल्प का चयन कीजिए।</b> <br> शब्द की आकर्षण शक्ति न्यूटन की आकर्षण शक्ति से लवमात्र भी कम नहीं कही जा सकती। बल्कि शब्द की इस शक्ति को न्यूटन की आकर्षण शक्ति से विशेष कहना चाहिए। इसलिए कि जिस आकर्षण शक्ति को न्यूटन ने प्रकट किया है वह केवल प्रत्यक्ष में काम दे सकती है। सूर्य पृथ्वी को अपनी ओर खींचता है, पृथ्वी चंद्रमंडल को; यों ही जितने बड़े पदार्थ हैं, सब छोटे को आकर्षित कर रहे हैं। किंतु एक पदार्थ दूसरे को तभी आकर्षित करता है, जब वे दोनों एक दूसरे के मुकाबले में हों। पर शब्द की आकर्षण शक्ति में यह आवश्यक नहीं है क्योंकि शब्द की आकर्षण शक्ति तभी ठहर सकती है जब नेत्र भी वहाँ योग देता हो। इन शब्दों का जितना ही अधिक समूह बढ़ता जाएगा उतनी ही उनमें आकर्षण शक्ति भी अधिक होती जाएगी। प्रत्येक जाति के धर्म ग्रंथ इसके प्रमाण हैं। वेदादि धर्म-ग्रंथ जो इतने माननीय हैं सो इसीलिए की उनमें धर्म का उपदेश ऐसे शब्द समूहों में है जो चित्त को अपनी ओर खींच लेते हैं और ऐसा चित्त में गड़ के बैठ जाते हैं कि हटाए नहीं हटते। न्यूटन ने जिस आकर्षण शक्ति को प्रकट किया वह उनके पहले किसी के दिलों को आकर्षित न कर सकती थी। वृक्ष से फल का टूट कर नीचे गिरना साधारण-सी बात है पर किसी के मन में इसका कोई असर नहीं होता। न्यूटन के चित्त में अकस्मात् आया कि ‘‘यह फल ऊपर न जा कर नीचे को क्यों गिरा।’’ अवश्य इसमें कोई बात है। देर तक सोचने के उपरांत उसने निश्चय किया कि इसका कारण यही है कि ‘‘बड़ी चीज छोटी को खींचती है।’’ पर शब्द की आकर्षण शक्ति में इतना असर है कि वह मनुष्य की कौन कहे वन के मृगों को भी मृग्ध कर देती है। <br>न्यूटन ने किस शक्ति की खोज की थी?
Question 14 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्न के उत्तर के रूप में उचित विकल्प का चयन कीजिए।</b> <br> शब्द की आकर्षण शक्ति न्यूटन की आकर्षण शक्ति से लवमात्र भी कम नहीं कही जा सकती। बल्कि शब्द की इस शक्ति को न्यूटन की आकर्षण शक्ति से विशेष कहना चाहिए। इसलिए कि जिस आकर्षण शक्ति को न्यूटन ने प्रकट किया है वह केवल प्रत्यक्ष में काम दे सकती है। सूर्य पृथ्वी को अपनी ओर खींचता है, पृथ्वी चंद्रमंडल को; यों ही जितने बड़े पदार्थ हैं, सब छोटे को आकर्षित कर रहे हैं। किंतु एक पदार्थ दूसरे को तभी आकर्षित करता है, जब वे दोनों एक दूसरे के मुकाबले में हों। पर शब्द की आकर्षण शक्ति में यह आवश्यक नहीं है क्योंकि शब्द की आकर्षण शक्ति तभी ठहर सकती है जब नेत्र भी वहाँ योग देता हो। इन शब्दों का जितना ही अधिक समूह बढ़ता जाएगा उतनी ही उनमें आकर्षण शक्ति भी अधिक होती जाएगी। प्रत्येक जाति के धर्म ग्रंथ इसके प्रमाण हैं। वेदादि धर्म-ग्रंथ जो इतने माननीय हैं सो इसीलिए की उनमें धर्म का उपदेश ऐसे शब्द समूहों में है जो चित्त को अपनी ओर खींच लेते हैं और ऐसा चित्त में गड़ के बैठ जाते हैं कि हटाए नहीं हटते। न्यूटन ने जिस आकर्षण शक्ति को प्रकट किया वह उनके पहले किसी के दिलों को आकर्षित न कर सकती थी। वृक्ष से फल का टूट कर नीचे गिरना साधारण-सी बात है पर किसी के मन में इसका कोई असर नहीं होता। न्यूटन के चित्त में अकस्मात् आया कि ‘‘यह फल ऊपर न जा कर नीचे को क्यों गिरा।’’ अवश्य इसमें कोई बात है। देर तक सोचने के उपरांत उसने निश्चय किया कि इसका कारण यही है कि ‘‘बड़ी चीज छोटी को खींचती है।’’ पर शब्द की आकर्षण शक्ति में इतना असर है कि वह मनुष्य की कौन कहे वन के मृगों को भी मृग्ध कर देती है। <br>आकर्षण तभी संभव है, जब.........................
Question 15 :
<b>निम्नलिखित प्रश्न के उत्तर देने के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए।</b> <br> <br>कलिका हिन्दी भाषा में बोलते समय कई बार अटकती है। आप क्या करेंगे?
Question 17 :
<b>निम्नलिखित प्रश्न के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए-</b> <br>भाषा सीखने की प्रक्रिया-
Question 18 :
<b> नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। </b> <br> हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हड़प्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था। सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा प्रति वर्ष लायी गयी उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी कृषि हेतु महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। इन उपजाऊ मैदानों में मुख्य रूप से गेहूँ और जौ की खेती की जाती थीं, सिंधु घाटी की यही फ़सल भी थी। अभी तक 9 फ़सलें पहचानी गयी हैं। चावल केवल गुजरात, लोथल में और संभवतः राजस्थान में भी, जौ की दो किस्में , गेहूँ की तीन किस्में, कपास खजूर, तरबूज मटर और एक ऐसी किस्म जिसे ‘ब्रासिक जुंसी‘ की संज्ञा दी गयी है। इसके अतिरिक्त मटर, सरसों, तिल एवं कपास की भी खेती होती थी। लोथल में हुई खुदाई में धान तथा बाजरे की खेती के अवशेष मिले है। बणावली में मिट्टी का बना हुआ एक खिलौना मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पा के लोग लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने सर्वप्रथम कपास उगाना प्रारम्भ किया। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की के दो पाट मिले हैं। पेड़-पौधों में पीपल, खजूर, नीम, नीबू एवं केले के साक्ष्य मिले हैं। मुख्य पालतू पशुओं में डीलदार एवं बिना डील वाले बैल, भैंस, गाय, भेड़-बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर और सुअर आदि है। हाथी और घोड़े पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। लोथल एवं रंगपुर से घोड़ी की मृण्मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। सूरकोटदा से सैन्धव कालीन घोड़े की अस्थिपंजर के अवशेष मिले हैं। कुछ पशु-पक्षियों, जैसे बन्दर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, मोर, तोता, उल्लू के अवशेष खिलौनों और मूर्तियों के रूप में मिले हैं। उस समय तांबे में टिन मिलाकर कांसा तैयार किया जाता था। तांबा राजस्थान के खेतड़ी से, टिन अफ़गानिस्तान से मंगाया जाता था। इस सभ्यता के लोगों द्वारा नाव बनाने के भी साक्ष्य मिले हैं। इस समय बनने वाले सोने, चांदी के आभूषणों के लिए सोना, चांदी सम्भवतः अफ़गानिस्तान से एवं रत्न दक्षिण भारत से मंगाया जाता था। बालाकोट तथा लोथल में सीप उद्योग अपने विकसित अवस्था में था। हड़प्पाई लोग सिंधु सभ्यता के क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु शल्क आदि का व्यापार करते थे, लेकिन वे जो वस्तुएं बनाते थे उसके लिए अपेक्षित कच्चा माल उनके नगरों में उपलब्ध नहीं था। अतः उन्हें बाह्य देशों से व्यापारिक सम्पर्क स्थापित करना पड़ता था। तैयार माल की खपत की आवश्यकता ने व्यापारिक संबंधो को प्रगाढ़ बनाया। व्यापार में धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे वरन वस्तु विनिमय प्रणाली पर ही उनके व्यापार आधारित थे। व्यापारिक वस्तुओ की गांठों पर शिल्पियों एवं व्यापारियों द्वारा अपनी मुहर की छाप थी तथा दूसरी ओर भेजे जाने वाले का निशान अंकित था। बाट-माप एवं नाप तोल का व्यापारिक कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है। तौल की इकाई संभवतः 16 अनुपात में थी। मोहनजोदाड़ों से सीप का तथा लोथल से हांथी दांत का निर्मित एक-एक पैमाना मिला है। सैधव सभ्यता के लोग यातायात के रूप में दो पहियों एवं चार पहियों वाली बैलगाड़ी अथवा भैसागाड़ी का उपयोग करते थे। उनकी बैलगाड़ी में प्रयुक्त पहिये ठोस आकार के होते थे। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त एक मुहर पर अंकित नाव का चित्र एवं लोथल से मिट्टी की खिलौना नाव से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस सभ्यता के लोक आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार में मस्तूल वाली नावों का उपयोग करते थे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक सम्बन्ध राजस्थान, अफ़गानिस्तान, ईरान एवं मध्य एशिया के साथ था। हड़प्पा संस्कृति में कही से किसी भी मंदिर के अवशेष नहीं मिले है। मोहनजोदाड़ो एवं हडप्पा से भारी मात्रा में मिली मिट्टी की मृण्मूर्तियों में से एक स्त्री मृण्मूर्ति के गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है, इससे यह मालूम होता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग धरती को उर्वरता की देवी मान कर इसकी पूजा किया करते थे। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त एक सील पर तीन मुख वाला एक पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा हुआ है। उसके सिर तन सींग हैं, उसके बाँयी ओर एक गैंडा और भैंसा है तथा दांयी ओर एक हाथी, एक व्याघ्र एवं हिरण है। इस चित्र से ऐसा प्रतीत होता है आज के भगवान शिव की पूजा उस समय ‘पशुपति‘ के रूप में होती रही होगी। हड़प्पा के भगवान शिव की पूजा उस समय के ‘पशुपति‘ कि रूप में होती रही होगी। <br>गद्यांश के अनुसार, हड़प्पा सभ्यता में बनने वाले सोने, चांदी के आभूषणों के लिए सोना, चांदी मुख्य रूप से कहाँ से आता था?
Question 21 :
<b> नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। </b> <br> हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हड़प्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था। सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा प्रति वर्ष लायी गयी उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी कृषि हेतु महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। इन उपजाऊ मैदानों में मुख्य रूप से गेहूँ और जौ की खेती की जाती थीं, सिंधु घाटी की यही फ़सल भी थी। अभी तक 9 फ़सलें पहचानी गयी हैं। चावल केवल गुजरात, लोथल में और संभवतः राजस्थान में भी, जौ की दो किस्में , गेहूँ की तीन किस्में, कपास खजूर, तरबूज मटर और एक ऐसी किस्म जिसे ‘ब्रासिक जुंसी‘ की संज्ञा दी गयी है। इसके अतिरिक्त मटर, सरसों, तिल एवं कपास की भी खेती होती थी। लोथल में हुई खुदाई में धान तथा बाजरे की खेती के अवशेष मिले है। बणावली में मिट्टी का बना हुआ एक खिलौना मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पा के लोग लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने सर्वप्रथम कपास उगाना प्रारम्भ किया। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की के दो पाट मिले हैं। पेड़-पौधों में पीपल, खजूर, नीम, नीबू एवं केले के साक्ष्य मिले हैं। मुख्य पालतू पशुओं में डीलदार एवं बिना डील वाले बैल, भैंस, गाय, भेड़-बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर और सुअर आदि है। हाथी और घोड़े पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। लोथल एवं रंगपुर से घोड़ी की मृण्मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। सूरकोटदा से सैन्धव कालीन घोड़े की अस्थिपंजर के अवशेष मिले हैं। कुछ पशु-पक्षियों, जैसे बन्दर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, मोर, तोता, उल्लू के अवशेष खिलौनों और मूर्तियों के रूप में मिले हैं। उस समय तांबे में टिन मिलाकर कांसा तैयार किया जाता था। तांबा राजस्थान के खेतड़ी से, टिन अफ़गानिस्तान से मंगाया जाता था। इस सभ्यता के लोगों द्वारा नाव बनाने के भी साक्ष्य मिले हैं। इस समय बनने वाले सोने, चांदी के आभूषणों के लिए सोना, चांदी सम्भवतः अफ़गानिस्तान से एवं रत्न दक्षिण भारत से मंगाया जाता था। बालाकोट तथा लोथल में सीप उद्योग अपने विकसित अवस्था में था। हड़प्पाई लोग सिंधु सभ्यता के क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु शल्क आदि का व्यापार करते थे, लेकिन वे जो वस्तुएं बनाते थे उसके लिए अपेक्षित कच्चा माल उनके नगरों में उपलब्ध नहीं था। अतः उन्हें बाह्य देशों से व्यापारिक सम्पर्क स्थापित करना पड़ता था। तैयार माल की खपत की आवश्यकता ने व्यापारिक संबंधो को प्रगाढ़ बनाया। व्यापार में धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे वरन वस्तु विनिमय प्रणाली पर ही उनके व्यापार आधारित थे। व्यापारिक वस्तुओ की गांठों पर शिल्पियों एवं व्यापारियों द्वारा अपनी मुहर की छाप थी तथा दूसरी ओर भेजे जाने वाले का निशान अंकित था। बाट-माप एवं नाप तोल का व्यापारिक कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है। तौल की इकाई संभवतः 16 अनुपात में थी। मोहनजोदाड़ों से सीप का तथा लोथल से हांथी दांत का निर्मित एक-एक पैमाना मिला है। सैधव सभ्यता के लोग यातायात के रूप में दो पहियों एवं चार पहियों वाली बैलगाड़ी अथवा भैसागाड़ी का उपयोग करते थे। उनकी बैलगाड़ी में प्रयुक्त पहिये ठोस आकार के होते थे। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त एक मुहर पर अंकित नाव का चित्र एवं लोथल से मिट्टी की खिलौना नाव से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस सभ्यता के लोक आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार में मस्तूल वाली नावों का उपयोग करते थे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक सम्बन्ध राजस्थान, अफ़गानिस्तान, ईरान एवं मध्य एशिया के साथ था। हड़प्पा संस्कृति में कही से किसी भी मंदिर के अवशेष नहीं मिले है। मोहनजोदाड़ो एवं हडप्पा से भारी मात्रा में मिली मिट्टी की मृण्मूर्तियों में से एक स्त्री मृण्मूर्ति के गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है, इससे यह मालूम होता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग धरती को उर्वरता की देवी मान कर इसकी पूजा किया करते थे। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त एक सील पर तीन मुख वाला एक पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा हुआ है। उसके सिर तन सींग हैं, उसके बाँयी ओर एक गैंडा और भैंसा है तथा दांयी ओर एक हाथी, एक व्याघ्र एवं हिरण है। इस चित्र से ऐसा प्रतीत होता है आज के भगवान शिव की पूजा उस समय ‘पशुपति‘ के रूप में होती रही होगी। हड़प्पा के भगवान शिव की पूजा उस समय के ‘पशुपति‘ कि रूप में होती रही होगी। <br>गद्यांश के अनुसार, हड़प्पा सभ्यता में बनने वाले सोने, चांदी के आभूषणों के लिए सोना, चांदी मुख्य रूप से कहाँ से आता था?
Question 22 :
<b>निम्नलिखित प्रश्न के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए-</b> <br> <br>भाषा शिक्षण के उद्देश्य-
Question 23 :
निम्नलिखित प्रश्न के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए- <br>श्रवण कौशल का मुख्य उद्देश्य-
Question 24 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। </b> <br> <br> यह शाश्वत सत्य है कि भाषा, मनुष्य के भावों व विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त साधन है। यह भी देखने में आया है कि संसार में जितने भी राष्ट्र हैं, प्राय: उनकी राजभाषा वही है जो वहां की संपर्क भाषा है तथा वही राष्ट्रभाषा है जो वहां की राजभाषा है। भारत विविधताओं से भरा देश है जहां अनेकता में एकता झलकती है, उदाहरण के तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के प्रत्येक राज्य में सुसंस्कारित एवं समृद्ध राज्य-भाषाएं एवं अनेक उपभाषाएँ बोली जाती हैं, अत: यह कहना समीचीन होगा कि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। इस परिदृश्य में किसी एक भाषा को महत्व देना कठिन हो जाता है, लेकिन आजादी के बाद सभी भारतीय भाषाओं मे जो भाषा मनोरंजन, साहित्यिक एवं संपर्क भाषा के रुप में उभरी है वह हिंदी ही है। <br> आज हिन्दी को जिस रूप में हम देखते हैं उसकी बाहरी आकृति भले ही कुछ शताब्दियों पुरानी हो, किन्तु उसकी जड़ें संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश रूपी गहरे धरातल में फैली हैं। व्याकरण की अत्यधिक <b>जटिलता</b> और नियमबद्धता के कारण इन अपभ्रंश भाषाओं से पुनः स्थानीय बोलचाल की भाषाओं का जन्म हुआ जिन्हें हम आज की आधुनिक भारतीय भाषाओं के रूप में जानते हैं। <br> हिन्दी भाषा के विकास की प्रक्रिया आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास के साथ ही प्रारंभ होती है। आजादी से पूर्व खड़ी बोली हिन्दी या हिन्दुस्तानी ही सामान्य बोलचाल की एकमात्र ऐसी भाषा थी जो किसी न किसी रूप में देश के ज्यादातर भागों में समझी और बोली जाती थी। अत: एक राष्ट्र और एक राष्ट्रभाषा की भावना यहां जागृत हो उठी और हिन्दी सबसे आगे निकलकर राष्ट्र भाषा, संपर्क भाषा और मानक भाषा बनती चली गई। इस अभियान में गांधी जी की भूमिका अहम रही जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में राजनीतिक और सामाजिक मान्यता व संरक्षण प्रदान किया तथा इसका परिणाम यह रहा कि उत्तरी भारत में हिंदी साहित्य सम्मेलन और दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा जैसी हिन्दी सेवा संस्थाओं का जन्म हुआ, जिसके माध्यम से हजारों अहिंदी भाषी भारतीयों ने स्वैछ्चिक तौर पर हिन्दी को सीखना और अपनाना शुरू किया। <br> राजनीतिशास्त्र के कई विद्वानों ने इस बात को दोहराया है कि जब कोई देश किसी दूसरे देश को पराजित कर अपना गुलाम बना लेता है, तो वह पराजित देश की सभ्यता, संस्कृति, भाषा आदि को नष्ट करने का भरसक प्रयास करता है, पराधीन देश पर आक्रांताओं द्वारा अपनी भाषा को राजकाज की भाषा के रुप में जबरदस्ती थोपा जाता है ताकि पराधीन देश की आने वाली पीढ़ी यह भूल जाए कि वे कौन थे, उनकी संस्कृति एवं राजभाषा क्या थी। हिन्दी को राजभाषा का स्थान केवल इसलिए नहीं दिया गया कि वह देश की एकमात्र संपर्क भाषा है, बल्कि अंग्रेजी शासन को जड़ों से उखाड़ने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि क्रांतिकारियों के बीच में कोई एक भाषा हो जिसमें वह अपनी बात एक दूसरे को समझा सके। यह वह दौर था जब देश अंग्रेजो के शासन से त्रस्त था, लोग आज़ादी के लिए तरस रहे थे। अंग्रेजी विदेशी भाषा थी, जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी, अंग्रेजी शासन का विरोध करने के साथ-साथ अंग्रेजी का विरोध करना या उससे संबंधित वस्तुओं का विरोध भी आवश्यक हो गया था। <br> अतः स्वाधीनता संग्राम के वक्त राष्ट्रीय नेताओं ने स्वदेशीपन या राष्ट्रीय भावना को जागृत करने का प्रयत्न किया। देशवासियों के बीच एकता का संचार करने वाली भाषा के रुप में हिन्दी उभर कर सामने आई। देश को आजादी मिलने के बाद यह सामने आया कि देश में संचार की भाषा कोई हो सकती है तो वह हिन्दी ही है। संपर्क या व्यवहार की भाषा के रूप में हिन्दी की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया जाने लगा। <br> <br>गद्यांश के अनुसार, आजादी के बाद सभी भारतीय भाषाओं में जो भाषा मनोरंजन, साहित्यिक एवं संपर्क भाषा के रुप में उभरी है, वह भाषा कौन सी है?
Question 25 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्न के उत्तर के रूप में उचित विकल्प का चयन कीजिए। </b> <br> एडिसन विश्व के चोटी के आविष्कारक थे। एक जिज्ञासु और धुनी आविष्कारक, जिन्होनें अपनी युक्तियों को कठोर परिश्रम से साकार रूप दिया। वह बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने हजार से भी ज्यादा आविष्कार किये। बिजली के बल्ब के क्रांतिकारी आविष्कार ने उन्हें रातोंरात प्रसिद्धी के शिखर पर पहुंचा दिया। इसके आलावा एडिसन ने चलचित्र, फोनोग्राफ, टेलीग्राफ, माइक्रोफोन आदि ढेरों वस्तुएं बनाई। शायद इसलिए उन्हें "मेनलो पार्क का जादूगर" कहा गया। आइंस्टीन ने उन्हें ''सर्वकालिक महान आविष्कारक'' माना। सारी दुनिया ने उनकी प्रतिभा का लोहा माना और उन्हें 'जीनियस' कहकर बुलाया। अपने खाली समय में, एडिसन चीजों को उठाते और परखते रहते कि आखिर वह कैसे काम करती है। अंत में, उन्होंने खुद ही चीजें ईजाद करने का फैसला किया। अपने पहले आविष्कार, इलेक्ट्रिक वोट रिकॉर्डर की विफलता के बाद, एडिसन न्यूयॉर्क शहर चले आए। वहां उन्होंने स्टॉक मार्केट टिकरटेप प्रिंटर में जिस तरह से सुधार किया, वह उनके लिए एक बड़ा अवसर लेकर आया। 1870 तक उनकी कंपनी नेवार्क, न्यू जर्सी में अपने स्टॉक टिकर निर्माण करती रही। उन्होंने टेलीग्राफ में भी बड़ा सुधार किया, अब यह एक ही बार में चार संदेशों को भेजने में सक्षम था। अपने आविष्कारों में पैनापन लाने के लिए एडिसन एकाग्र चित्त होकर काम करना चाहते थे। इसके लिए उन्हें किसी शांत जगह की तलाश थी। 1876 में, एडिसन नेवार्क से मेनलो पार्क, न्यू जर्सी चले आए। यहां उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध प्रयोगशाला का निर्माण किया। मेनलो पार्क में वह अकेले नहीं थे बल्कि अपनी मदद के लिए उन्होंने कामगार पाल रखे थे। यह कामगार अमेरिका में अपना भाग्य बनाने दुनिया भर से आए थे, और अपने मुख्य कामगार और स्वयं एडिसन के साथ रात रात भर काम करते थे। एडिसन को तब "मेनलो पार्क का जादूगर" कहा जाता था क्योंकि अपने तीन महत्वपूर्ण आविष्कारों में से दो को उन्होंने यही बनाया था। 1878 के शुरुआत में, एडिसन और कामगारों ने उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक पर काम किया। उस समय विद्युत प्रकाश प्रणाली का मतलब था, एक प्रकाश लैंप, या ज्यादा से ज्यादा एक बिजली का बल्ब। एडिसन ने जनरेटर, स्विच, प्लग और फ्यूज सहित बिजली संयंत्रों की पूरी प्रणाली ही बना डाली जो बिजली बनाती और तार इसे लोगों के घरों तक दौड़ाते। 1882 में उन्होंने न्यूयार्क के ग्राहकों के लिए ग्रिड पर डीसी करेंट का पारेषण किया। एडिसन को अपने ही कर्मचारी की <b>व्यग्रता</b> से तगड़ा झटका लगा जब निकोला टेस्ला ने एसी करेंट का ईजाद किया, जो पारेषण में कहीं अधिक सस्ता था। 1890 तक एडिसन बिजली वितरण की लड़ाई हार चुके थे। एक वर्ष बाद, एडिसन ने पश्चिम ऑरेंज में एक प्रयोगशाला का निर्माण किया जो मेनलो पार्क की प्रयोगशाला से दस गुना बड़ी थी। वास्तव में, यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रयोगशालाओं में से एक थी जो एडिसन जितनी ही मशहूर थी। एडिसन ने अपने 1,093 पेटेंट की आधी कमाई पश्चिम ऑरेंज में कमाई थी। एडिसन ने न केवल फोनोग्राफ को कई बार सुधारा, बल्कि एक्स-रे, स्टोरेज बैटरी, और दुनिया की पहली बोलने वाली गुड़िया पर भी काम किया। पश्चिम ऑरेंज में उन्होंने अपने महान विचारों में से एक ''चलचित्र'' पर काम किया। इन आविष्कारों ने जीने का तरीका ही बदल दिया जिसे आज भी हम अपने जीवन में देखते है। अपनी 84 वर्ष की आयु तक, 18 अक्टूबर, 1931 को अपनी मृत्यु तक, एडिसन यहीं काम करते रहे। उस समय तक, सारी दुनिया ने एडिसन की प्रतिभा का लोहा मान लिया था। लेकिन एडिसन जानते थे, केवल एक अच्छी युक्ति पर्याप्त नहीं, बल्कि सपनों को हकीकत में बदलने के लिए कठोर परिश्रम की जरुरत होती है। यही कारण है, एडिसन का कहना है - "प्रतिभा, 1% प्रेरणा और 99% पसीना है।" <br> <br>गद्यांश के अनुसार, एडिसन को ''सर्वकालिक महान आविष्कारक'' कह कर किसने संबोधित किया?
Question 27 :
<b>निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर इन प्रश्नों के उत्तर दीजिए- </b> <br> वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सँभालो <br> चट्टानों की छाती से दूध निकालो। <br> है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो, <br> पीयूष चंद्रमाओं को पकड़ निचोड़ो। <br> चढ़ तुंग शैल-शिखरों पर सोम पियो रे। <br> योगियों नहीं, विजयी के सदृश्य जियो रे। <br> छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए <br> मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए। <br> दो बार नहीं यमराज कंठ धरता <br> मरता है जो, एक ही बार मरता है। <br> नत हुए बिना जो अशनि घात सहती है <br> स्वाधीन जगत में वही जाती रहती है। <br>कवि किसके समान जीने को कहता है?
Question 28 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। </b> <br> इस समय जनसत्ता संसार के प्रत्येक देश के दरवाजे पर दस्तक दे रही है और आज वह अपने मजबूत हाथों में भारतवर्ष के दरवाजे की जंजीर भी खटखटाती हुई उस अत्यंत प्राचीन भूमि के निवासियों से प्रश्न करती है कि बतलाओ, तुम नवयुग का स्वागत किस प्रकार करना चाहते हो? इस देश के युवकों से और उन सभी प्रकार के लोगों से जो कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण हो चुके हैं, उसका संसार के अत्याचारों और अनाचारों की ओर अंगुली उठाते हुए स्पष्ट प्रश्न है कि क्या उस समय, जबकि संसार में न्याय और अन्याय का ऐसा घमासान युद्ध छिड़ा हुआ है, तुम निष्क्रिय और चुपचाप हाथ पर हाथ रखे हुए बैठे रहना ही उचित समझते है? क्या उस समय जबकि राष्टों के होनहार नैनिहाल केवल 'निकृष्ट' श्रेणियों में जन्म लेने के कारण जबर्दस्तों की स्वार्थ वेदी पर बेदर्दी से बलिदान किये जा रहे हैं, जब केवल जाति या रंग के कारण मनुष्य, मनुष्य की गर्दन काट रहा है, तुम चुपचाप बैठे हुए इस विभीषिका को देखते रहना अपना धर्म समझते हो? क्या उस समय जब व्यक्तियों के स्वेच्छाचारों के अंत की घोषणा संसार भर में गूँज उठी है और स्वेच्छाचार अपनी धाक की समाप्ति के पश्चात् अब अपने जाने की गंभीरतापूर्वक तैयारी कर रहा है, तब उन घटनाओं को चुपचाप देखना ही तुम्हारा कर्तव्य है? <br>गद्यांश के अनुसार, संसार में किसका घमासान युद्ध छिड़ा हुआ है?
Question 29 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्न के उत्तर के रूप में उचित विकल्प का चयन कीजिए।</b> <br> समाज को यदि एक वृक्ष मान लिया जाए, तो अर्थ नीति उसकी जड़ है। राजनीति आधार, विज्ञान आदि उसके तने हैं और संस्कृति उसके फुल। इसलिए नए समाज की अर्थ नीति या राजनीति आदि पर ही हमें ध्यान नहीं देना है, बल्कि उसकी संस्कृति की ओर सबसे अधिक ध्यान देना है, क्योंकि मूल और तने की सार्थकता तो उसके फूल में ही है। फिर इन तीनों का समबन्ध परस्पर इतना गहरा है कि आप इन्हें अलग-अलग कर भी नहीं सकते। नई अर्थ नीति और राजनीति के साथ एक नई संस्कृति का विकास हमारी आँखों के सामनें हो रहा है, भले ही हम उसे देख न पाएँ या उसकी ओर से आँखें मूँद लें। अन्य क्षेत्रों में हमारी पंचवर्षीय योजनाएँ आ रही हैं, किन्तु क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि संस्कृति के विकास में प्रगति देने के लिए एक भी व्यापक योजना हमारे सामने नहीं आ रही है। जब राजनीति और अर्थशास्त्र दूसरी बड़ी-बड़ी योजनाओं में लगे हों, ओ कलाकारों! चलो हम अपनी परिमित शक्ति से इस क्षेत्र में कुछ काम कर दिखाएँ। आखिर यह क्षेत्र भी तो हमारा ही है। गुलाब की खेती के माली तो हम ही हैं। फूलों के संसार के भौंरे तो हम ही हैं, हम न करेगे, तो करेगा कौन? <br>गद्यांश के अनुसार, ‘गुलाब की खेती’ से लेखक का तात्पर्य है-
Question 30 :
<b>निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर इन प्रश्नों के उत्तर दीजिए-</b> <br> <br> बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा। <br> चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना ढल रहा। <br> देखो कृषक शोणित सुखाकर, हल तथापि चला रहे। <br> किस लोभ से इस आँच में, अपना शरीर जला रहे। <br> मध्याह्न उनकी गृहणियाँ, ले रोटियाँ पहुँची वही। <br> है रोटियाँ रुखी उसे है, साग की चिंता नहीं। <br> भर पेट भोजन पा गए, तो भाग्य मानों जग गए।। <br> <br>काव्यांश में किस ऋतु का वर्णन किया गया है?
Question 31 :
निम्न में से कौन-सा प्रश्न बच्चों को पाठ से जोड़ने में सहायता करता है?
Question 32 :
<b>निम्नलिखित प्रश्न के लिए सबसे उचित विकल्प चुनिए-</b> <br>‘ईश्वर’ का ‘इस्सर’ में किस प्रकार का उच्चारण दोष है?
Question 33 :
निम्नलिखित वाक्य में रिक्त स्थानों के लिए उपयुक्त शब्दों वाला विकल्प चुनिए। <br> ‘‘........ में बोली जाने वाली, ....... के बीच और पड़ोसी की भाषाओं तथा ....... में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा के बीच के फासले को काटने का भरपूर प्रयास किया जाना चाहिए।’’
Question 35 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। कुछ शब्दों को मोटे अक्षरों में मुद्रित किया गया है, जिससे आपको कुछ प्रश्नों के उत्तर देने में सहायता मिलेगी। गद्यांश के अनुसार, दिए गए विकल्पों में से सबसे उपयुक्त का चयन कीजिए।</b> <br> <br> आजकल अवसाद की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है। 17 प्रतिशत से अधिक लोग इसकी चपेट में हैं, जिनमें युवाओं की संख्या सर्वाधिक है। अगर आपका मन किसी काम में नहीं लग रहा, आप लोगों से कटे-कटे से रहने लगे हैं, थकान, आलस और उदासी ने आपको घेर रखा है तो हो सकता है कि आप डिप्रेशन यानी अवसाद के शिकार हो गए हों। महानगरों में यह समस्या काफी तेजी से बढ़ रही है। आमतौर पर यह बीमारी 13 सें 35 वर्ष की उम्र में अधिक देखने को मिल रही है। हमारे देश में ही नहीं, विश्वभर में अवसादग्रस्त लोगों की बढ़ती संख्या के कारण ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अवसाद यानी डिप्रेशन को डिप्रेशन ऑफ ग्लोबल क्राइसिस की संज्ञा दी है। जब मस्तिष्क को पूरा आराम नहीं मिल पाता और उस पर हमेशा एक दबाव बना रहता है तो समझिए कि तनाव ने आपको अपनी चपेट में ले लिया है। तनाव को 20वीं सदी के सिंड्रोम की संज्ञा दी जाती है। डॉक्टरी भाषा में तनाव यानी शरीर के होमियोस्टैसिस में गड़बड़ी। यह वह अवस्था है, जो किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक कार्यप्रणाली को गड़बड़ा देती है। तनाव के कारण शरीर में कई हार्मोन का स्तर बढ़ता जाता है, जिनमें एड्रीनलीन और कार्टिसोल प्रमुख हैं। लगातार तनाव की स्थिति अवसाद में बदल जाती है। अवसाद एक गंभीर स्थिति है। हालांकि यह कोई रोग नहीं है, बल्कि इस बात का संकेत है कि आपका शरीर और जीवन असंतुलित हो गया है। यह याद रखना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब आप अवसाद को एक बीमारी के रूप में देखना प्रारंभ करते हैं, तब आप सोचते हैं कि आपको दवा लेने की आवश्यकता है। किसी बीमारी या भावनात्मक आघात के कारण दो सप्ताह तक अवसाद में रहना सामान्य बात है। इन समस्याओं से उबरने के बाद अवसाद के लक्षण अपने आप ही कम होने लगते हैं और व्यक्ति सहज अनुभव करने लगता है। अगर दो सप्ताह के बाद भी लक्षण बढते रहें तो यह एक गंभीर समस्या हो सकती है। दुख, उत्तेजना, क्रोध, मूड स्विंग, असहाय अनुभव करना, नकारात्मक सोच, अकेलापन महसूस करना अवसाद के भावनात्मक लक्षण हो सकते हैं। अत्यधिक थकान, ऊर्जा की कमी, अत्यधिक सोना या कम सो पाना, भूख अधिक या कम लगना, अपच, अनियमित मासिक चक्र, दर्द आदि अवसाद के शारीरिक लक्षण हैं। <br> <br> अवसाद के कारण- इंडियन साइकाइट्रिक सोसायटी के अनुसार अवसाद के दो कारण हो सकते हैं, जैविक और अजैविक। यदि अवसाद की वजह जैविक है तो उसका उपचार दवा के द्वारा करने की जरूरत होती है, पर अजैविक कारणों से हुए अवसाद को काउंसलिंग, योग और ध्यान के जरिए दूर किया जाता है। अवसाद के कुछ अन्य कारण- भावनात्मक समस्याएं, हार्मोन परिवर्तन, विशेषकर गर्भावस्था और मेनोपॉज के बाद आनुवंशिक कारण, मोटापा, जीवन से मिले नकारात्मक अनुभव, कठिनाइयों और अभावों में बिता बचपन, ट्रॉमा या गंभीर नुकसान, विशेष रूप से जीवन के शुरुआती दिनों में, दवाइयों के दुष्प्रभाव, अल्कोहल या ड्रग्स का सेवन, अवसाद के उपचार के लिए दवा जितनी कारगर होती है, उससे अधिक कारगर मनोवैज्ञानिक उपचार होते हैं, लेकिन दोनों का ही अपना-अपना महत्व है। गहरे अवसाद से पीडित लोगों में आत्महत्या की भावना आने लगती है। उन्हें लगता है कि यही एक रास्ता है, जिससे उन्हें उनकी सारी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है। भारत में प्रतिदिन करीब 95-100 लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें 40 प्रतिशत युवा होते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के अनुसार युवा लोगों में आत्महत्या मृत्यु की सबसे बड़ी वजह है और आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह है डिप्रेशन अर्थात अवसाद। <br> <br> अवसाद से बचने के लिए संतुलित भोजन खाएं अर्थात ताजे फल, सब्जियों, साबुत अनाज व स्वस्थ वसा मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी हैं। दिन में तीन बार अधिक भोजन खाने की बजाए 5 या 6 बार थोड़ी-थोड़ी मात्रा खाएं। इससे रक्त में शर्करा का स्तर कम नहीं होता। मस्तिष्क का उपयोग करें अर्थात - मानसिक व्यायाम मस्तिष्क की नई कोशिकाओं के निर्माण में मदद कर उनका पैनापन बढ़ाता है। नई चीजें सीखें। सुडोकू, क्रॉस वर्ड अच्छे व्यायाम हैं। नियमित रूप से व्यायाम करें अर्थात मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए प्रतिदिन कम-से-कम 30 मिनट का व्यायाम जरूर करें। आप जितने अधिक फिट होंगे, शरीर में फील गुड हार्मोन एंडोरफिन का स्तर उतना अधिक बेहतर रहेगा। तनाव न लें, लगातार तनाव की स्थिति मस्तिष्क की कोशिकाओं और हिप्पो कैम्पस को नष्ट कर देगी। हिप्पो कैम्पस मस्तिष्क का वह क्षेत्र है, जो नई यादों को बनाने और पुरानी यादों को संजोए रखने का काम करता है। ध्यान करें -वैज्ञानिकों ने साबित किया है कि अवसाद, उत्तेजना, अनिद्रा की समस्या में राहत दिलाने में ध्यान बहुत उपयोगी है। खूब आराम करें। <br> <br>उपर्युक्त गद्यांश के अनुसार, जिस अवसाद का कारण जैविक है, उसका उपचार किसके द्वारा किया जाता है?
Question 36 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।</b> <br> हाल ही में केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रथम विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस के अवसर पर भारत के सभी नागरिकों को ‘कम खाओ, सही खाओ’ मुहिम को जन आंदोलन बनाने का आह्नान किया है। मंत्रालय ने कहा कि आज हमें एक भी दाना बर्बाद नहीं करने का संकल्प लेना चाहिए तथा अपने स्तर पर और अपने संस्थानों में, खाद्य सुरक्षा में योगदान देना सुनिश्चित करना चाहिए। इससे गरीबी, भूख और कुपोषण को जड़ से मिटाने में मदद मिलेगी। विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस दिशा में निर्देश देते हुए कहा है कि सभी वैवाहिक स्थल, होटल, मोटल और फार्म हाउसों में होने वाली शादी-समारोहों में भोजन की बर्बादी को रोका जाना चाहिए। <br> मानव सभ्यता के आरंभ से ही अन्न का विशेष महत्त्व रहा है। परंपरागत रूप से देखा जाए तो हमारे यहाँ भोजन का अर्थ केवल पेट भरना नहीं रहा है, बल्कि अन्न को सम्मान देने की भी परंपरा रही है। किंतु अकसर यह देखा गया है कि घरों में ही नहीं बल्कि बाहरी कार्यक्रमों में भी जैसे- विवाह, जन्म, मरण आदि समारोहों में भोजन की खूब बर्बादी होती है। उल्लेखनीय है कि ऐसे आयोजनों में बर्बाद होने वाला भोजन इतना होता है कि उससे लगभग एक अरब से ज्यादा लोगों की खाने की जरूरत पूरी हो सकती है। इस प्रकार इस प्रवृत्ति से कहीं न कहीं ‘भोजन का अधिकार’ प्रभावित हो रहा है। नतीजतन कुपोषण और भुखमरी बढ़ी है। प्रस्तुत लेख में हम अन्न बर्बादी का विश्लेषणात्मक अध्ययन करेंगे। <br> भोजन की बर्बादी से न केवल सरकार बल्कि सामाजिक संगठन भी चिंतित हैं। दुनियाभर में हर वर्ष जितना भोजन तैयार होता है, उसका एक-तिहाई (लगभग 1 अरब 30 करोड़ टन) अन्न बर्बाद हो जाता है। विश्व खाद्य कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व का हर सातवां व्यक्ति भूखा सोता है। अगर खाद्य की बर्बादी को रोका जा सके तो कई लोगों का पेट भरा जा सकता है। विश्व भूख सूचकांक 2018 के अनुसार, भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर पहुँच गया है। भारत की वर्तमान स्थिति चीन, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे कई पड़ोसी देशों से भी खराब हो चुकी है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 के बाद से ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में लगातार गिरावट आई है। वर्ष 2014 में भारत जहां 55वें पायदान पर था, तो वहीं 2015 में 80वें, 2016 में 97वें और 2017 में 100वें पायदान पर आ गया था। यह आंकड़े भी विचारणीय हैं कि हमारे देश में हर साल उतना गेहूँ बर्बाद होता है, जितना ऑस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूँ की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। देश में 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बर्बाद हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त भंडारण की सुविधा नहीं है। वहीं देश में उत्पादित कुल फल और सब्जी का एक बड़ा हिस्सा (40 प्रतिशत) परिवहन के उचित साधनों की कमी के कारण समय पर मंडी तक नहीं पहुँच पाता है। <br> भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल 23 मिलियन टन दाल, 12 मिलियन टन फल और 21 मिलियन टन सब्जियाँ वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं। विदित हो कि औसतन हर भारतीय एक साल में छह से ग्यारह किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जिससे फल-सब्जी को सड़ने से बचाया जा सके। भारत में बढ़ती समृद्धि के साथ लोग भोजन के प्रति असंवेदनशील होते जा रहे हैं। खर्च करने की बढ़ती क्षमता के साथ ही लोगों में भोजन फेंकने की प्रवृत्ति बढ़ी है। आज कई मध्यवर्गीय परिवारों में भोजन पर व्यर्थ व्यय करने का चलन बढ़ा है नतीजतन उनका बजट बढ़ा है। समाज में दिखावेपन के कारण शादियों, त्योहारों या महोत्सवों में भोजन की बर्बादी सामान्य बात हो गई है। आम तौर पर दो प्रकार के अपशिष्ट होते हैं पहला जो लोग प्लेट में बिना खाए भोजन छोड़ते हैं और दूसरा जब उम्मीद से कम व्यक्ति पार्टी/भोज में खाने के लिए आते हैं। वर्तमान समय में समाज के सभी लोगों को मिलकर भोजन की बर्बादी रोकने के लिये सामाजिक स्तर पर जागरुकता लानी होगी तभी भोजन की बर्बादी को रोकने का अभियान सफल हो पायेगा। <br>गद्यांश के अनुसार, देश में एक वर्ष में होने वाली अन्न की बर्बादी के बराबर कीमत से, पर्याप्त रूप से किसका निर्माण किया जा सकता है?
Question 37 :
सामाजिक व्यवहार के ........................ व सांस्कृतिक पैटर्न (नमूने) अवचेतन स्तर पर ग्रहण किए जाते हैं।<br/>
Question 38 :
<b>नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्न के उत्तर के रूप में उचित विकल्प का चयन कीजिए। </b> <br/> भारत सदा से ही संतों, महापुरुषों एवं वीरों की जन्मस्थली रहा है। कहा गया है कि जब-जब संसार में अधर्म की वृद्धि एवं धर्म की हानि होती है तो समाज का उद्धार करने के लिए किसी महापुरुष का जन्म होता है। गौतम बुद्ध का नाम भी ऐसे ही महापुरुष के रूप मैं विख्यात है। गौतम बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। इनके जन्म के विषय में कहा जाता है कि एक बार महारानी महामाया ने स्वप्न देखा कि वे हिमालय के शिखर पर हैं और देवराज इंद्र का वाहन ऐरावत अपनी सुंड् में शतदल कमल लिए उनकी परिक्रमा कर रहा है। राजा को रानी के इस स्वप्न का जब पता चला तो राज- ज्योतिषियों को बुलाया गया। उन्होंने बताया कि यह स्वप्न मंगलसूचक है। महारानी की इच्छा देखकर राजा शुद्धोधन ने उन्हें उनके पिता के पास भेजने की व्यवस्था कर दी। महारानी महामाया नेपाल की थीं। मार्ग में भारत-नेपाल सीमा पर स्थित लुंबिनी वन में गर्भवती महामाया एक बालक को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई। इस बालक को महामाया की छोटी बहन गौतमी ने पाला। बालक के जन्म ने पिता के मनोरथ को पूरा किया, इसलिए इनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। बालक सिद्धार्थ की जन्म कुंडली देखकर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक महापुरुषों के गुण लेकर जन्मा है। निश्चय ही यह महायोगी सन्यासी और महान साधक के रूप में ख्याति प्राप्त करेगा। यदि किसी प्रभाव से इसका मन परिवार मैं रम गया तो यह महाप्रतापी राजा बनेगा और अपना नाम उज्जवल करेगा। महाराजा शुद्धोधन ने यह सुना तौ वे चिंताग्रस्त हो उठे। पुत्र की परवरिश राजसी ठाठ के साथ विशेष सावधानी के साथ होने लगी। लेकिन जो योग लैकर पुत्र उत्पन्न हुआ उसका प्रभाव बचपन से ही उसकी प्रवृत्तियों पर स्पष्ट झलकने लगा। बालक सिद्धार्थ बचपन से ही गंभीर प्रकृति के थे। उनका मन राजसी वैभव में नहीं अपितु उद्यान में एकांत चिंतन में लगता था। पिता ने यह देखा तौ राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा नाम की राजकुमारी से कर दिया। राजकुमार सिद्धार्थ कुछ दिन तो इस नए पन को देखते-समझते रहे। इसी बीच इनके यहां राहुल नाम के पुत्र ने जन्म लिया। लेकिन विधि को तो कुछ ओर ही स्वीकार था। पत्नी तथा परिवार भी उन्हें मोह-बंधन में न बांध सके। ‘ एक दिन भ्रमण करते हुए राजकुमार सिद्धार्थ को एक रोगी मिला, एक दिन एक बूढा और एक बार उन्हें एक शवयात्रा देखने को मिली। पूछने पर पता चला कि कोई मर गया है। इस तरह इन्हें रोग की भीषणता, वृद्धावस्था की लाचारी और मृत्यु की अनिवार्ययता ने इतना व्यथित किया कि इनका मन संसार से<b>विरक्त</b> हो गया। ये आत्मचिंतन में लीन हो गए। एक दिन रात्रि के तीसरे पहर में पत्नी तथा पुत्र को छोड़ गृह त्याग कर साधना मार्ग पर बढ़ गए। प्रात: काल यशोधरा ने शैथ्या पर जब इन्हें नहीं देखा तो वह सब कुछ समझ गई। पति के इस प्रकार से जाना यशोधरा को गहरा दु :ख हुआ। यशोधरा की इसी पीड़ा को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने यशोधरा काव्य ने बड़ी मार्मिकता के साथ वर्णित किया है। अनेक स्थानों की यात्रा करते, ज्ञान-पिपासा में राजकुमार सिद्धार्थ ‘ गया ‘ पहुंचे। वहां एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगाकर बैठ गए। वहीं इन्हें ज्ञान हुआ कि सादा जीवन ही उत्तम है। दु :ख का मूल कारण तृष्णा है। सत्य ही तप है। व्यक्ति को आत्म-परिष्कार से ही शांति मिलेगी। इस जीवन मैं कोई छोटा-बड़ा नहीं है। प्रत्येक को भक्ति का पूजा-अर्चना का पूर्ण अधिकार है। इन सबका बोध होने पर वे ‘ बुद्ध ‘ के नाम से विख्यात हुए। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान मिला उसे बोद्धिवृक्ष कहा जाता है। ‘गया’ मैं बुद्ध सारनाथ गए। यहां से उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया। उनके द्वारा चलाया गया धर्म ही बौद्ध धर्म कहलाया। जातिबंधन तोड़ने के कारण सभी वर्गों विशेषकर छोटे वर्ग के लोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भारत में सम्राट अशोक ने बुद्ध धर्म के उपदेश को चीन, मध्य एशियाई तथा पूर्व एशियाई देशों में फैलाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। आज भले ही समाज में सनातन धर्म, आर्य समाज का प्रबल प्रभाव हो किंतु मानव धर्म की दृष्टि से बौद्ध धर्म का अपना महत्त्व है। गौतम बुद्ध को उनके इस जीवन मंत्र के आधार पर ही भगवान बुद्ध कहा जाता है।<br/> <br/>गद्यांश के अनुसार, भारत के किस सम्राट ने बुद्ध धर्म के उपदेश को चीन, मध्य एशियाई तथा पूर्व एशियाई देशों में फैलाने में उल्लेखनीय योगदान दिया?<br/>