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#४७५ 0/85565, , के, , २0४:, , , , '/४७॥०0776,, , /०४६ [७०४4० (०९८८०४४ & /4रहएटाह, , लामार्कवाद , फ्रांसीसी प्रकृति वैज्ञानिक जे.बी.लामार्क ने सबसे पहले 809 में जैव विकास के अपने विचारों को अपनी पुस्तक ', फिलॉसफिक जूलौजिक " में प्रकाशित किया | इसे लामार्कवाद या उपार्जित लक्षणों का वंशागति सिध्दांत कहते है |, लामार्क के अनुसार जीवों की संरचना, कायिकी,उनके व्यवहार पर वातावरण के परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है |, परिवर्तित वातावरण के कारण जीवों के अंगों का उपयोग ज्यादा अथवा कम होता है | जिन अंगों का उपयोग नहीं, होता है उनका धीरे धीरे हास हो जाता है | वातावरण के सीधे प्रभाव से या अंगों के कम या अधिक उपयोग के कारण, जन्तु के शरीर में जो परिवर्तन होते है उन्हें उपार्जित लक्षण कहते है | जन्तुओं के उपार्जित लक्षण वंशागत होते है, अर्थात एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रजनन के द्वारा चले जाते है | ऐसा लगातार होने से कुछ पढ़ियों के पश्चात, उनकी शारीरिक रचना बदल जाती है तथा एक नये प्रजाति का विकास हो जाता है |, , लामार्क वाद का बाद में कई बैज्ञानिकों ने जोरदार खंडन किया | उन वैज्ञानिकों के अनुसार उपार्जित लक्षण वंशागत, नहीं होते है | इसकी पृष्टि के लिए जर्मन वैज्ञानिक वाईसमैन ने 24 पीढ़ियों तक चूहे की पुंछ काटकर यह प्रदर्शित, किया कि कटे पुंछ वाले चूहे की संतानों में हर पीढ़ी में पुंछ वर्तमान रह जाती है | लोहार के हाथों की मांसपेशियां, हथौड़ा चलाने कै कारण मजबूत हो जाती है परन्तु उसकी संतानों में ऐसी मजबूत मांसपेशियों का गुण वंशागत नहीं, हो पाता है | वैसे जीव जिनमें लैगिक जनन होता है , जनन कोशिकाओं का निर्माण उनके जनद या जनन ग्रन्थि का, गोनड में होता है | शरीर की अन्य कोशिकाएं कायिक कोशिकाएं कहलाती है | वातावरण के प्रभाव के कारण कायिक, कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तन संतानों में संचरित नहीं होते है | इसका कारण यह है कि कायिक कोशिकाओं में, होने वाले परिवर्तन उनके साथ साथ जनन कोशिकाओं में नहीं होते है |, , डार्विनवाद , जैव विकास परिकल्पना के सन्दर्भ में दुसरा सिध्दांत डार्विनवाद के नाम से जाना जाता है | इस सिध्दांत को दो, अंग्रेज वैज्ञानिकों आल्फ्रेड रसेल वैलेस तथा चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन ने मिलकर प्रतिपादित किया था | दोनों वैज्ञानिकों, ने स्वतंत्र रूप से कार्य कर समान निष्कर्षों को निकाला था |, , चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन नामक प्रसिद्ध अंग्रेज वैज्ञानिक ने जैव विकास की व्याख्या अपनी पुस्तक ॥॥6 ०ांध्ा। रण, 96068 में व्यक्त की | जैव विकास का उनका सिध्दांत प्राकृतिक चुनाव द्वारा प्राणियों का विकास या डार्विनवाद, कहलाता है | उनका यह सिध्दांत उनके प्रसिद्ध समुद्री यात्रा के दौरान किये गये रोचक अवलोकनों पर आधारित है
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| उन्होंने यह समुद्री यात्रा 834 से 836 तक दक्षिण अमेरिका जाने वाले एक ब्रिटिश जहाज एच.एम.एस. बीगल, से किया था | डार्विन के मतानुसार जीवों में प्रजनन के द्वारा अधिक से अधिक संतान उत्पन्न करने की क्षमता, होती है | प्रत्येक जीव में अत्यधिक प्रजनन दर की तुलना में इस पृथ्वी पर जीवों के लिए भोजन तथा आवास नियत, है | अत: जीवों में अपने अस्तित्व के लिए आपस में संघर्ष होने लगता है | अस्तित्व के लिए संघर्ष दुसरे प्रजातियों, के साथ साथ प्रकृति या वातावरण के साथ भी होता है |, , प्रकृति में कोई दो जीव बिलकुल एक समान नहीं होते है | उनमें कुछ न कुछ असमानताएं अवश्य होती है | जीवों में, बिभिन्नताओं की अधिकता के फलस्वरूप जीवन के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है | जीवन के लिए संघर्ष में वही जीव, योग्यतम होते है जो सबसे अधिक योग्य गुणों वाले होते है | अयोग्य गुण वाले जीव नष्ट हो जाते है शत में, प्रकृति योग्यतम तथा अनुकूल विभिन्नताओं वाले जीवों को चुन लेती है तथा अयोग्य एवं प्रतिकूल _ओं, वाले जीवों को नष्ट कर देती है | जीवन संघर्ष में सफल सदस्य अधिक समय तक जीवित रहते है और अपनी, वंशानुक्रम को जारी रखने में योगदान देते है | इसी को एक अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर ने सामाजिक विकास के, सन्दर्भ में योग्यतम अतिजीविता तथा इसी को जैव विकास के सन्दर्भ में डार्विन ने प्राकृतिक चयन कहा |, , जीवन संघर्ष में सफल सदस्यों की वंशागति बढ़ने से प्रत्येक पीढ़ी के सदस्य अपने पूर्वजों से भिन्न हो जाते है | यही, विभिन्नता हज़ारों लाखों वर्षों के बाद नई जातियो का निर्माण करती है | उन्होंने कहा कि प्रकृति भी इसी प्रकार, चुनाव के द्वारा सफल्र सदस्यों को प्रोत्साहित कर नई जातियों की उत्पति करती है | इसिलिय डार्विनवाद प्राकृतिक, , चयनवाद कहलाता है | सन 858 में डार्विन और वैलेस ने अपने कार्यो को संयुक्त रूप से प्राकृतिक चयनवाद के, नाम से प्रकाशित किया |, , डार्विन की आलोचना, , . डार्विन ने विकासवाद को आनुवांशिकता के आधार पर नहीं समझाया था |, , 2. डार्विन के अनुसार नई जातियों की उत्पति के लिए विभिन्नताएं उतरदायी थी लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार, छोटी छोटी भिन्नताओं से नई जातियों की उत्पति नहीं हो सकती है |, , 3. वैज्ञानिकों ने डार्विन के लिंग चयनवाद को भी गलत ठहराया है |, , 4. वंशागत लक्षणों वाले जीव जब एक दुसरे जीवों के साथ मैथून करते है जिनमें ये लक्षण नहीं होते तो इन दोनों के, मिलन से लक्षणों का प्रभाव कम नहीं होता है | डार्विन इसकी व्याख्या नहीं कर सके |, , 5. प्रकृति वरणवाद ने किसी अंग के विशिष्टीकरण को नहीं बताया जिसके कारण कुछ जातियां नष्ट हो गई |, , नवडार्विनवाद , नवडार्विनवाद को आधुनिक सांश्लेषिकवाद परिकल्पना भी कहते है | नवडार्विनवाद निम्न प्रक्रमों की पारस्परिक, क्रियाओं का परिणाम है -