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मानवीय करुणा की दिव्य चमक, फ़ादर को ज़हरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत, के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस जहर का विधान क्यों हो? यह सवाल किस, ईश्वर से पूछे? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था। वह देह की इस यातना की परीक्षा, उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दे? एक लंबी, पादरी के सफ़ेद चोगे से ढकी आकृति सामने, है-गोरा रंग, सफ़ेद झाँई मारती भूरी दाढ़ी, नीली आँखें-बाँहें खोल गले लगाने को आतुर।, इतनी ममता, इतना अपनत्व इस साधु में अपने हर एक प्रियजन के लिए उमड़ता रहता था।, मैं पैंतीस साल से इसका साक्षी था। तब भी जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह, दिल्ली आते थे। आज उन बाँहों का दबाब मैं अपनी छाती पर महसूस करता हूँ ।, फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है । उनको देखना करुणा, के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था।, मुझे 'परिमल' के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे, जिसके बड़े फ़ादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते , हमारी गोष्ठियों, में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों, के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने, आशीर्षों से भर देते। मुझे अपना बच्चा और फ़ादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना, याद आता है और नीली आँखों की चमक में तैरता वात्सल्य भी - जैसे किसी ऊँचाई पर, देवदारु की छाया, खड़े हों।, कहाँ से शुरू करें! इलाहाबाद की सड़कों पर फ़ादर की साइकिल चलती दीख रही है।, वह हमारे पास आकर रुकती है, मुसकराते हुए उतरते हैं, ' देखिए देखिए मैंने उसे पढ़ लिया, है और मैं कहना चाहता हूँ...' उनको क्रोध में कभी नहीं देखा , आवेश में देखा है और ममता, तथा प्यार में लबालब छलकता महसूस किया है। अकसर उन्हें देखकर लगता कि बेल्ज़ियम, में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुँचकर उनके मन में संन्यासी बनने की इच्छा कैसे जाग, गई जबकि घर भरा-पूरा था-दो भाई , एक बहिन, माँ, पिता सभी थे।, 2021-22
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क्षितिज, " आपको अपने देश की याद आती है?", "मेरा देश तो अब भारत है।", " मैं जन्मभूमि की पूछ रहा हूँ?', "हाँ आती है। बहुत सुंदर है मेरी जन्मभूमि -रेम्सचैपल।", घर में किसी की याद?", 44, 11, 11, 44, 11, "माँ की याद आती है-बहुत याद आती है।", फिर अकसर माँ की स्मृति में डूब जाते देखा है । उनकी माँ की चिट्ठियाँ अकसर उनके, पास आती थीं। अपने अभिन्न मित्र डॉ. रघुवंश को वह उन चिट्वियों को दिखाते थे पिता और, भाइयों के लिए बहुत लगाव मन में नहीं था। पिता व्यवसायी थे। एक भाई वहीं पादरी हो गया, है। एक भाई काम करता है, उसका परिवार है। बहन सख्त और ज़िद्दी थी। बहुत देर से उसने, शादी की। फ़ादर को एकाध बार उसकी शादी की चिंता व्यक्त करते उन दिनों देखा था। भारत, में बस जाने के बाद दो या तीन बार अपने परिवार से मिलने भारत से बेल्ज़ियम गए थे।, "लेकिन मैं तो संन्यासी हूँ।", आप सब छोड़कर क्यों चले आए?", "प्रभु की इच्छा थी।" वह बालकों, की सी सरलता से मुसकराकर कहते,, "माँ ने बचपन में ही घोषित कर दिया, 44, 11, 44, 44, 86, था कि लड़का हाथ से गया। और, इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई, छोड़ फ़ादर बुल्के संन्यासी होने जब धर्म, गुरु के पास गए और कहा कि मैं, संन्यास लेना चाहता हूँ तथा एक शर्त, रखी (संन्यास लेते समय संन्यास चाहने, सचमुच, वाला शर्त रख सकता है) कि मैं भारत, जाऊँगा।", भारत जाने की बात क्यों उठी?", 44, 11, "नहीं जानता, बस मन में यह था। ", उनकी शर्त मान ली गई और वह, भारत आ गए। पहले 'जिसेट संघ' में दो, साल पादरियों के बीच धर्माचार की पढ़ाई, की। फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते, फ़ादर कामिल बुल्के, 2021-22, ERT, Prepublis
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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रहे। कलकत्ता (कोलकाता) से बी.ए. किया और फिर इलाहाबाद से एम.ए.। उन दिनों डॉ., धीरेंद्र वर्मा हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। शोधप्रबंध प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में, रहकर 1950 में पूरा किया- 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास|' ' परिमल' में उसके अध्याय, पढ़े गए थे। फ़ादर ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'ब्लू बर्ड' का रूपांतर भी किया है, 'नीलपंछी' के नाम से। बाद में वह सेंट जेवियर्स कॉलिज, राँची में हिंदी तथा संस्कृत विभाग, के विभागाध्यक्ष हो गए और यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेज़ी - हिंदी कोश तैयार किया और, बाइबिल का अनुवाद भी...और वहीं बीमार पड़े, पटना आए। दिल्ली आए और चले गए-47, वर्ष देश में रहकर और 73 वर्ष की जिंदगी जीकर।, फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी- कभी लगता है वह मन से संन्यासी नहीं थे ।, रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध, होती थी। वह जब भी दिल्ली आते जरूर मिलते -खोजकर, समय निकालकर, गर्मी, सर्दी,, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है? उनकी, चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच से इसकी तकलीफ़ बयान करते,, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुँझलाते देखा है और हिंदी, वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी, दुख-तकलीफ़ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से, सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या, से जनमती है। 'हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह ।' मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु, याद आ रही है और फ़ादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी ।, आज वह नहीं है। दिल्ली में बीमार रहे और पता नहीं चला। बाँहें खोलकर इस बार, उन्होंने गले नहीं लगाया। जब देखा तब वे बाँहें दोनों हाथों की सूजी उँगलियों को उलझाए, ताबूत में जिस्म पर पड़ी थीं। जो शांति बरसती थी वह चेहरे पर थिर थी। तरलता जम गई, थी। वह 18 अगस्त 1982 की सुबह दस बजे का समय था। दिल्ली में कश्मीरी गेट के, निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी-सी नीली गाड़ी में से उतारा गया। कुछ पादरी,, रघुवंश जी का बेटा और उनके परिजन राजेश्वरसिंह उसे उतार रहे थे फिर उसे उठाकर एक, लंबी सँकरी, उदास पेड़ों की घनी छाँह वाली सड़क से कब्रगाह के आखिरी छोर तक ले, जाया गया जहाँ धरती की गोद में सुलाने के लिए कब्र अवाक् मुँह खोले लेटी थी। ऊपर, करील की घनी छाँह थी और चारों ओर कब्रें और तेज़ धूप के वृत्त। जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र, स्नातक, अजित कुमार, डॉ. निर्मला जैन और मसीही समुदाय के लोग पादरीगण, उनके बीच, में गैरिक वसन पहने इलाहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान-शिक्षक डॉ सत्यप्रकाश और डॉ. रघुवंश, भी जो अकेले उस सँकरी सड़क की ठंडी उदासी में बहुत पहले से खामोश दुख की किन्हीं, महसूस, 87, 2021-22