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रस, , , , रस - साहित्य का नाम आते ही रस का नाम स्वतः आ जाता है। इसके बिना, , साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारतीय साहित्य शास्त्रियों ने, साहित्य के लिए रस की अनिवार्यता समझा और इसे साहित्य के लिए आवश्यक, , , , , , , , बताया। वास्तव में रस [२४७ काव्य की आत्मा है।, , , , किसी साहित्य को पढ़कर जब व्यक्ति कविता के भावों से ता, लेता है तब इस प्रक्रिया में उसके मन के स्थायी भाव रस मे, इस तरह काव्य से जो आनंद प्राप्त होता है वह जीवन के, अनुभवों जैसा होकर भी उससे ऊँचे स्तर को, , व्यक्तिगत संकीर्णता से अलग होता है।, , , , , , परिभाषा-कविता-कहानी को पढने, जेल न, , और दर्शक को जो आनंद प्राप्त होता, रस के अंग-रस के चार चर, , 74 का, , , , कविता या नाटक का आनंद लेने से सहृदय के हृदय में भावों का, , , , संचार होता है। ये भाव मनुष्य के हृदय में स्थायी रूप से विद्यमान होते हैं।, सुषुप्तावस्था में रहने वाले ये भाव साहित्य के आनंद के द्वारा जग जाते हैं और रस, में बदल जाते हैं, , , , , , मानव मन में अनेक तरह के भाव उठते हैं पर साहित्याचार्यों ने इन भावों को, मुख्यतया नौ स्थायी भावों में बाँटा है पर वत्सल भाव को शामिल करने पर, , , , बशृू. ् य् ् ् ् ् /ऑ/