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संघर्षरत रहने के लिए कहते हुए उनके सारे दुःख -दर्द एवं पीडा को अपने हृदय में समेटने की आकांक्षा जाहीर करते, हुए उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं।, , 1.3.1 सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला' का परिचय :, , हिंदी साहित्य-जगत् के श्रेष्ठठम साहित्यकार के रूप में निराला जी का नाम आदर से लिया जाता है। महाकवि, निराला जी का पूरा नाम सूर्यकांत रामसहाय त्रिपाठी है। लेकिन हिंदी साहित्य जगत आपको “निराला' नाम से जानता, है। निराला जी हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख चार आधारस्तंभों में से एक हैं। उन्हें प्रगतिशील, दार्शनिक,, चिंतनशील, विद्रोही एवं जन-जीवन के प्रति विशेष आस्था रखने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। उन्हें महाप्राण, निराला' भी कहा जाता है। अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त अन्याय एवं शोषण के खिलाफ उन्होंने, आवाज उठाई हैं। किसान, मजदूर, श्रमिक, दलित, नारी तथा पिछडे वर्गों को अपने साहित्य-जगत् का विषय बनाने, का चुनौतिपूर्ण कार्य निराला जी ने किया। भारतीय संस्कृति, राष्ट्रप्रेम, मानव प्रेम एवं प्रकृति प्रेम आपके काव्य के मूल, विषय रहे हैं। उनके समूचे साहित्य में मानवतावाद के दर्शन होते हैं। भाषा और छंद के बंधन तोडकर उन्होंने मौलिक, और नवीन काव्य-रचना की । उन्होंने हिंदी में गीतिकाव्य का प्रचलन किया। हिंदी में वे मुक्त छंद के प्रणेता माने जाते, हैं।, , निराला का जन्म 21 फरवरी, 1896 ई. को बंगाल के मेदिनीपुर परिक्षेत्र के महिषादल नामक स्थान में हुआ।, उनका परिवार कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार था। बचप्रन में ही उनकी माँ का देहावसान हो गया था। इसलिए पिता ने, उनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा बंगाली में हुई और वहाँ से ही मैट्रीक तक की शिक्षा उन्होंने प्राप्त, की। कविता के प्रति बचपन से ही उनका अनुराग था पत्नी मनोहरादेवी की प्रेरणा से वे हिदी की ओर आकृष्ट हुए।, प्रतिभाशाली होने के कारण शीघ्र ही वे हिंदी और संस्कृत के अधिकारी विद्वान हो गए। आपका सारा जीवन दु:खों ,, असफलताओं , संकटों और संघर्षों से भरा हुआ रहा है। बचपन में माँ की मृत्यु, यौवनावस्था में पदार्पण करते समय, पिता की मृत्यु, एक पुत्र और पुत्री को जन्म देकर अल्पावधि में ही पत्नी मनोहरादेवी एवं तदूनंतर बेटी सरोज के, असामायिक देहावसान होने के कारण उनका सांसारिक जीवन बेहद कष्टप्रद रहा। कवि होने के साथ-साथ वे एक, कुशल गायक एवं संगीतज्ञ भी थे। उनके साहित्यिक जीवन की साधना समन्वय नामक के संपादक काल से प्रारंभ, हुई। रामकृष्ण मिशन के संपर्क में आने के कारण निराला जी की विचार-धारा पर रामकृष्ण, विवेकानंद का गहरा, प्रभाव दिखाई देता है। आर्थिक कठिनाईयों से जूझनेवाले इस कवि को महिषादल राज्य में नौकरी मिली, परंतु स्वतंत्र, स्वभाव के कारण उन्होंने नौकरी छोडी। आप जीवनभर साहित्य-सेवा से जुडे रहे। 'निराला' सब प्रकार के बंधनों से, मुक्त एक स्वच्छंद प्रकृति के कलाकार थे। 15 नवम्बर, 1961 ई. को निराला जी का स्वर्गवास हो गया।, , प्रमुख रचनाएँ :, , निराला जी बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है।, उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
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दुःख-दर्द एवं पीडा को अपने अंदर समाने की बात कवि कहते हैं, लेकिन उन्हें भी इसके लिए संघर्षरत रहने की, नसिहत कवि देते हैं। भिश्लुक के प्रति अपार सहानुभूति को कवि ने इस कविता के माध्यम से प्रकट किया है।, , 1.3.3 'भिक्षुक' कविता का भावार्थ :, , प्रस्तुत कविता में कवि दीन-हीन भिक्षुक को रस्ते पर आता देखते हैं, जिसकी अवस्था बेहद ही दर्दनाक एवं, दयनीय है। संवेदनशील हृदय के कवि उसकी निर्मम व्यथा को चित्रित करते हुए कहते हैं - भिक्षा की याचना करते हुए, उस भिखारी के कलेजे के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं, उसका कलेजा भीख माँगते-माँगते चूर-चूर हो रहा है। वह अपनी, इस अवस्था के लिए पछता रहा है, पर भीख माँगने के लिए वह विवश है। उसकी स्थिति इतनी कृश एवं दुर्बल है कि, उसका पेट और पीठ दोनों एक ही दिखाई दे रहे हैं। वह लाठी लेकर चल रहा है, जो उसकी शारीरिक दुर्बलता एवं, वृद्धावस्था को भी दर्शाता है। वह अपने पेट की भूख मिटाने के लिए सिर्फ मुट्ठी भर दाने की ही याचना करते हुए, अपनी फटी हुई पुरानी झोली को बार-बार फैला रहा है। यह उसकी विवशता बनी हुई है, लेकिन ऐसे करते हुए उसके, कलेजे के टुकड़े -टुकड़े हो जाते हैं। वह पछताता है, लेकिन फिर भी रस्ते पर भीख माँगने के लिए प्रवृत्त हो जाता है।, , उस भिखारी की दयनीयता और अधिक इसलिए भी है कि उसके साथ दो बच्चे भी हैं, जो सदैव अपने हाथ, फैलाए हुए हैं। बाएँ हाथ से वे अपने पेट पर हाथ फेरते रहते हैं, मानों अपनी भूख का इजहार कर रहे हो और दायाँ हाथ, आगे की ओर फैला रहता है, इस आशा में कि किसी की दया का पात्र वे बन जाएँ और कोई उन्हें कुछ खाने के लिए, दे दें। किसी की भी दया-दृष्टि जब उन पर नहीं पड़ती तो उनके ओंठ भूख के कारण सूख जाते हैं और भाग्य-विधाता दाता से वे कुछ भी नहीं पाते, तो वे आँसुओं के घूँट पीकर रह जाते हैं। याने भूख मिटाने के लिए जब ये भिखारी रास्ते, पर भीख की याचना करते हैं और कोई भी जब इन पर दया नहीं दिखाता तब भूख के कारण इनकी आँखों से आँसू, बहने लगते हैं और भाग्य-विधाता भगवान से भी जब कुछ हासिल नहीं होता, तब दर्द और निराशा ही उनके हाथ, लगती है।, , इन भिखारियों की नजर कभी सड़क पर पड़ी हुई जूठी पत्तलों पर पड़ती है, तो भूख के कारण वे उन्हें ही चाटने, लगते हैं, कितु यहाँ भी उनके प्रतिस्पर्धी के रूप में कुत्ते मौजूद होते हैं, जिन्हें लगता है कि उनकी भूख का हिस्सा इन, भिखारियों के द्वारा खाया जा रह है, इसलिए वे भी उनके हाथों से उन जूठी पत्तलों को हासिल करने के लिए अड़े, हुए हैं। जीवन की कैसी विडम्बना है कि जो पशुओं के लिए भोग्य वस्तु है, वह भी उनके नसीब में नहीं है या उसके, लिए भी उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है। परंतु कवि का हृदय संवेदनशील है, मानवीयता से ओत-प्रोत है। उन भिखारियों, की स्थिति को देखकर उन्हें उनका हृदय कहता है कि मेरे हृदय में संवेदना का अमृत बह रहा है, मैं उस अमृत से तुम्हें, सींचकर तृप्त कर दूँगा। लेकिन तुम्हें चक्रव्यूह भेदने गए अभिमन्यु जैसे जुझारू और संघर्षशील होना होगा, तभी इस, संसार के गरीबी और अन्य दुश्चक्ररूपी चक्रव्यूह से तुम मुक्त हो सकोगे। तुम्हारे संपूर्ण दुःख-दर्द को मैं अपने हृदय, में समेट लूँगा, तुम्हारे सारे दुःख -दर्द को बाँटकर उन्हें दूर करूँगा। अत: कवि भिश्चुक की दीनता के प्रति अपनी अपार, संवेदनशील सहानुभूति को प्रकट करते हैं। समाज के शोषण, अन्याय एवं दमन के खिलाफ ऐसे शोषित, पीड़ित एवं, दलित वर्ग के प्रति कवि की आस्था एवं संवेदनशीलता को प्रस्तुत कविता बयान करती है।