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साम्राज़ी का नैवेद्य-दान, अज्ञेय, , , , सन्दर्भ : प्रस्तुत कविता प्रयोगवादी तार सप्तक के प्रवर्तक कवि अजेय द्वारा रचित कविता 'साम्रज्ञी का, नैवेद्य-दान' से अवतरित है।, , प्रसंग : इसमें कवि ने एक भक्तिन के माध्यम से उसके मन के भावों को व्यक्त कराया है, जो भगवान की पूजा, करना चाहती है, परन्तु वह अपने साथ सामग्री नहीं लाई है। वह खाली हाथ है। उसके पास केवल उसके मन के भाव, , हैं, जो भगवान से जुड़े हुए हैं। भक्ति भावना से युक्त वह कहती है, व्याख्या :, "हे महाबुद्ध!,......... तेरे योग्य न होता।", , , , है भगवान बुद्ध! मैं तुम्हारे रे इस मंदिर में तुम्हारी री पूजा करने के लिए आई हूँ मेरे पास तुम्हारे सामने चढ़ाने के लिए, या पूजा-पाठ करने के लिए सामग्री नहीं है। मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। ये हाथ खाली हैं। मगर मेरे मन में केवल, पवित्र-भक्ति-भाव हैं, जिन्हें मैं तुम्हें अर्पित करना कल हूँ। मेरे भाव ही मेरी पूजा की सामग्री हैं। मेरे पास, फूल-फल भी नहीं हैं, जिन्हें मैं तुम्हारे समक्ष चढ़ा सकूँ। दूसरे लोग अपने साथ विभिन्न प्रकार की पूजा की सामग्री, लेकर आते हैं और तुम्हें खुश करने की कोशिश करते हैं, परन्तु मैं ऐसा न कर सकी हूँ ।, , , , मैं तो खाली हाथ ही आई हूँ। उनकी थाली में तरह-तरह की एकत्र की गई सामग्रियाँ होती हैं। वे बड़े आदमी हैं मगर, मैं तो अपने में गरीब हूँ । मेरे पास तो केवल मेरे भाव ही हैं। मेरी दृष्टि में यह तरीका शायद तेरे लिए ठीक होगा।, उनमें दिखावटीपन है। वे लोग समर्थ हैं। मगर मेरे पास पवित्र भाव एवं तेरे प्रति श्रद्धा है। मैं केवल यही अर्पित कर, समती हूँ । तुम चाहे इसे स्वीकार करो या न करो। वह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। क्योंकि फूल को तोड़ना भी मुझे, हिंसा लगती है। मेरी भावना ही आपको समर्पित है।, , , , "जो मुझे सुनाती........ रह: सूत्र अविराम-", , यदि वह भक्तिन या पुजारिन मुझे अपने मन के भावों और विचारों से अवगत कराती है तो कितना अच्छा होता! मैं, उससे उसके बारे में जानने का सुअवसर पाता तो यह मेरे त्रिए उपयुक्त होता। अर्थात् है उसको जानने या, समझने का मौका मित्रता। पर वह मुझ से दूर है। वह मुझे निश्चय ही अपने जीवन में होंगे अर्थात् उसने उन्हें, भोगा होगा यह स्थितियाँ उसके लिए कितनी कष्ट मूक रही होंगी। जीवन वैसे भी सुख-दुख का मिश्रण है। गरीबों, के जीवन में अभाव-ग्रस्तता होती है। वह निश्चय ही मझे सांसारिक क्षणों को स्पष्ट करके बताती कि वह किन, हालातों में जी रही है ? किस तरह वह विषम परिस्थितियों का सामना कर रही है। वह उन्हें खुलकर सुनाती।, , , , कवि भी कहता है कि जब मैं तेरे बारे में विचार करता हूँ तो मेरी करुणा जनक स्थितियाँ या क्षण मुझे सोचने के, लिए बाध्य करते हैं। मेरे मन में तरह-तरह के विचार आते हैं। उसके विषय में सोचने लगता हूँ। इस संसार में सुख, के क्षणों की कोई कमी नहीं है। कद दुख ही दुख नहीं हैं। बल्कि हर क्षण को जीने का यथार्थ एवं भोग अलग-अलग, हैं। ये क्षण जीवन में निरन्तर आते रहते हैं और बीतते रहते हैं। मनुष्य इन्हीं क्षणों में जीता रहता है। वह सपने, देखता है और उन्हीं में खो जाता है। वे उसे सुख-दुख की तीव्र अनुभूति कराते हैं। यही शाश्वत है।, , , , , , , , "उस भोली मुग्धा को कँपती.......अर्पित करती हूँ तुझे।"
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जीवन की दारूण और करुणा जनक परिस्थितियाँ उस नवयौवना को उसके जीवन-रूपी मार्ग से हिला न सकी।, अर्थात् वह अभी भी अपनी सोच एवं स्थितियों पर अडिग है। वह तनिक भी कंपित नहीं हुई है। जिस कली को जहाँ, खिलना चाहिए वह वहीं खिल रही है वह जैसी भी है वह अपने में ठीक है। वह उसी रूप में पल्लवित एवं पष्पित हो, रही है। वह पुजारिन अपने में अपनी जगह पर खिल रही है। अर्थात वह अपने में खुश है। ठीक प्रकार से जैसे फूल, जहाँ भी है, वह वहाँ ही खिलता एवं खश रहता है। यदि वह अपनी डाली से टूट जाए या हिलकर अलग हो जाए, उसका जीवन भी नष्ट हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो जहा है,वह वहीं ही खश रह सकता है। फूल भी, उसी डाली पर खश रहता है जहाँ वह खिल रहा होता है। वह उसी डाली पर विकसित,रोमांचित तथा उगता है। और, उसी डाली पर खिलकर खुश होता है। वह अपनी जगह पर टिका हआ है।, , , , , , , , , , कवि भी उसे वहीं पर खिलता हुआ देख रहा है। वह अपने में अटूट, बिना किसी मुसीबत के पता नहीं चलता है कि, वह कैसे पुष्पित होता है ? मगर वह लगातार बढ़ रहा है। हे महाबुदध! मैं जिस रूप में हँ, उसी तरह से और उसी रूप, में तुझे अपना सब कछ अर्पित करती हूँ। तुम उसे ही स्वीकार करो। यही मेरा तुमको अर्पण हैं। मैं अपने को इस रूप, में प्रसन्न पाती हूँ।, , "वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का........... है महाबुद्ध!", , , , , , जिसको जीवन में जो कुछ प्राप्त है या जो उसे मिल्रा है उसी में उसको शांति के साथ जीवन-यापन करना चाहिए।, उसमें होड़ तथा लालच का भाव नहीं होना चाहिए। कवि कामना करता है कि इस संसार में हर आदमी को जीवन, रूपी - प्याले में जो भी प्राप्त है, वह उसी में खुश रहें और रहना चाहिए। धैर्य और संतोष जीवन की पूँजी है। जिस, भक्त के पास जिस तरह की पूजा करने की सामग्री है, वह उसे ही मंदिर में भगवान के समाने चढ़ाए। दूसरों को, देखकर उसे अपने मन में अभाव-ग्रस्त नहीं समझना चाहिए जिसके जीवन में जो कछ भी प्राप्त है उसे उसी में खुश, रहना चाहिए।, , , , भगवान का भक्त को भी यही संदेश है। यह ईर्ष्या का विषय नहीं है। उसके जीवन में जो आनंद प्राप्त है उसे उसी, को अपना मानना चाहिए, क्योंकि उस आनद पर उसी का ही अधिकार है। वही उसके लिए जीवन का आनंद-रूपी, प्याला है। वह तेरा ही आनंद है चाहे वह भूतकाल का हो या वर्तमान का हो वह तेरा ही कमल-रूपी फूल के रूप में, तेरा ही भंडार है। वही तेरा संचित फल है। जो तुझे मिल्रा है। इसलिए हे भक्त तेरा जीवन तेरा ही है। तेरा ही वह, आनंद-फल है। हर किसी का अपना-अपना आनंद है। वही उसका फलागाम है। भगवान ब॒द्ध का भी यही कथन है, हर किसी को उसके किए का फल मिलता है, जरूरत हमें शांति रखने की है। हमें संयम रखना चाहिए विचलित नहीं, होना चाहिए।, , , , , , , , विशेष :, अहिंसा की पुजारिन के मन के भावों को पवित्र रूप में ही व्यक्त किया है।, , (2) भक्तिन का आत्म-निवेदन है।, (3) भाषा में व्यंग्योक्ति है।, , (4) सरल शब्दों का प्रयोग है।, , (5) भावों में गंभीरता है।, , (6) बिंबात्मकता है।
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(7) कवि की क्षणवादी अवधारणा व्यक्त हुई है।, , (8) युद्ध-दर्शन में 'मणवाद' ही चिंतन का विषय है।, , (9) नारी-जीवन के बारे में वर्णन हुआ है।, , (0) कवि ने जीवन, जगत और सुख आदि का संकेतात्मक रूप में वर्णन किया है।, () अक्षत...कविता में अनुप्रास है।, , (2) तत्सम शब्दावली प्रधान है।, , (3) कवि ने क्षणानुभूति और शाति पर बल दिया है।, , , , (4) यह बुद्ध का ही सिद्धांत है। 'प्रत्येक भरे प्यारा जीवन का' में कवि ने समानता तथा जीवन-मंगल की, कामना की है।