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यही पीड़ा अन्त में कवयित्री को वह शक्ति प्रदान करती है कि वह अपने प्रियतम से तादाकार हो जाती, है, ठीक उसी तरह जिस तरह चित्र और रेखा का, मधुर राग और स्वरों का अविच्छिन्न सम्बन्ध होता है और प्रेयसी, तथा प्रियतम की द्वैतता केवल भ्रमात्मक रह जाती है-, "चित्रित तू मैं हूँ रेखा-क्रम,, मधुर राग तू में स्वर-संगम, तू असीम मैं सीमा का भ्रम,, काया छाया में रहस्यमय?, इस प्रकार महादेवी वर्मा का विरह केवल दुख का भाव नहीं है, वरन् यह एक प्रकार की साधना है जो, परम प्रियतम से मिलन में सहायक सिद्ध होती है।, 1.3.2 संसार तथा जीवन की नश्वरताः-, संसार तथा जीवन नश्वरता भी महादेवी वर्मा की विरह-वेदना को बढावा देती है। वह संसार की क्षण भंगुरता, को देखकर अत्यन्त दुखी हो उठती हैं-, "देकर सौरभ-दान पवन से कहते जब मुरझाये फूल,, जिसके पथ में बिछे वही क्यों भरता इन आँखों में धूल?, अब इसमें क्या सार मधुर जब गाती भौरों की गुंजार,, मर्मर का रोदन कहता है कितना निष्ठुर है संसार ।, इस निष्ठुर संसार में रहने वाला व्यक्ति केवल अपने ही सुख-दुख में लीन रहता है। किसी दूसरे के, में करूणा से विगलित होने का उसके पास समय ही नहीं है। तभी तो महादेवी वर्मा कहती हैं-, दुख, "जब न तेरी ही दशा पर दुख हुआ संसार को,, कौन रोयेगा सुमन हमसे मनुज निःसार को।, जीवन-जगत की क्षण भंगुरता को उन्हों ने एक शाश्वत सत्य के रूप में व्यक्त किया है-, सखे यह माया का संसार, क्षणिक है तेरा मेरा संग,, यहाँ रहता कॉटो में बन्धु, सुमन का यह चटकीला रंग ।, इसी संदर्भ में उन्होंने 'उत्सर्ग' अथवा 'बलिदान' की भावना व्यक्त की है-, 5