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५. काव्य (पद्य) प्रकारों को समझ सरकेंगे।, ६. शब्द की शक्ति से अवगत हो जाएँगे।, ७., शब्द शक्ति के भेद से अवगत हो जाएँगे।, ८. शब्द का प्रयोग करना सीख जाएँगे।, ९., रस के अर्थ स्वरूप और निष्पत्ति से परिचित होंगे।, १०. रस के अंग और प्रकार समझ सकेंगे।, ११. साधारणीकरण का अर्थ जान लेंगे।, १२. साधारणीकरण पर विभिन्न आचार्यों के विचारों से अवगत होंगे।, १३. साधारणीकरण का अनुभव करना जान जाएँगे।, १४. रस की विशेषताओं को समझने में सक्षम होंगे।, १.२ प्रस्तावना, काव्य और साहित्य एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द है। काव्य का एक अर्थ कविता या पट्य भी, लिया जाता है, लेकिन साहित्य शब्द गद्य, पद्य और दृश्य रचनाओं का बोधक माना जाता है।, प्राचीन भारतीय ग्रंथों में काव्य के लिए 'वाङ्मय' शब्द का प्रयोग पाया जाता है। 'काव्य' शब्द 'कवि, से प्रचलित हुआ है। कुछ लोग इसे अंग्रेजी शब्द 'Poetry' का अनुवाद मानते हैं । लेकिन वास्तविकता, यह है कि गद्य के प्रभाव के पूर्व भारतीय रचनाकार पद्यबद्ध रचनाएँ करते थे, और पद्य रचनाएँ, करनेवालों को 'कवि' कहा जाने के कारण उनकी रचनाओं को 'काव्य' कहा जाता था। आगे चलकर, भारतीय रचनाकार गद्य का भी लेखन करने लगे तो 'काव्य'शब्द दोनों ( गद्य-पद्य) का प्रतिनिधि बन, गया। लगभग आठवीं शताब्दी से 'काव्य' के लिए 'साहित्य' शब्द का भी प्रयोग होने लगा। साहित्य, अंग्रेजी शब्द 'Literature' का भी पर्यायवाची माना जाता है। आज साहित्य शब्द बहुप्रचलित और, व्यापक बन गया है। यहाँ हम काव्य शब्द का अर्थ साहित्य की सभी विधाओं के प्रतिनिधि के रूप, में ले रहे हैं। इस प्रकार जो 'साहित्य' का लक्षण है वही 'काव्य' का लक्षण भी माना जायेगा।, आज मानव जीवन का हर कार्य किसी, इसके लिए अपवाद नहीं है। शब्द अपना कार्य या बोध जिस शक्ति के द्वारा कराते हैं उसे शब्द शक्ति, कहा जाता है। मनुष्य विचारों और भावों का आदान-प्रदान् करने के लिए जिस साधन का प्रयोग करता, है; वह है भाषा। भाषा में शब्द और अर्थ का घनिष्ठ संबंध होता है%3B जिसे अलग करना बहुत ही मुश्किल, है। वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहा जाता है, मगर शब्द का अर्थ उसके प्रयोग पर निर्भर करता है।, शब्द में अंतर्निहित अर्थ को प्रकट करने वाले व्यापार को शब्द शक्ति कहा जाता है। शब्द का अर्थ बोध, कराने वाली शक्ति को शब्द शक्ति कहा जाता है।, - न-किसी शक्ति द्वारा संपन्न हो जाता है। शब्द शक्ति भी, ३
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(२) आयुर्वेद का रस, (३) साहित्य का रस और (४) भक्ति रस। आज भी ये चारों अर्थ अपने-, अनिर्वचनीय साहित्यिक आनंद के रूप में प्रयुक्त किया गया है । साहित्य - जनित - रसानंद ब्रह्मास्वाद, 'रस' शब्द बहुत व्यापक है। इसका प्रयोग चार अर्थों में किया जाता है। (१) पदार्थों क, अपने स्थान पर विद्यमान हैं। यहाँ हमारा संबंध 'साहित्य के रस' से है। काव्यशास्त्र में 'रस', सहोदर माना जाता है । इसलिए 'रस' को साहित्य का प्राण तत्व निश्चित किया गया है। रसास्वाद प्राप्त, करने के लिए ही पाठक साहित्य का पठन करता है।, भारतीय काव्यशास्त्र में सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के रूप में रस को माना जाता है। संस्कृत एवं हिंदी, के कई आचार्यों ने रस को ही काव्य की आत्मा माना है और काव्य समीक्षा का मुख्य मानक भी। नाटक, और काव्य में निहित पात्र सहदय को अनुभूत होकर आनंद का आस्वाद कैसे प्रदान करता है; इसका, समाधान भारतीय आचार्यों ने साधारणीकरण के माध्यम से किया। दरअसल साधारणीकरण रस सिद्धान्त, से संबंधित एक ऐसी प्रक्रिया है जो रसास्वादन के लिए सहायक सिद्ध होती है।, १.३ विषय-विवेचन, अब हम काव्य-लक्षण, काव्य-हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य के प्रकार, रस का स्वरूप, रस, निष्पत्ति, रस के अंग, रस के प्रकार और रस की विशेषताओं का विस्तार से अध्ययन करेंगे। शब्द, और अर्थ का अटूट संबंध है। जिस प्रकार जल और मछली के जीवन का संबंध है उसी प्रकार शब्द, और अर्थ का संबंध है। जिस तरह जल के विना मछली की कल्पना नहीं की जा सकती उसी प्रकार, शब्द विहीन अर्थ और अर्थ हीन शब्द की कल्पना नहीं की जा सकती कवि कालिदास ने शिव-पार्वती, के साहचर्य के समान शब्द और अर्थ का साहचर्य स्वीकार किया है।, १.३.१, काव्य (साहित्य) : लक्षण (परिभाषा), काव्य अथवा साहित्य के अनेक लक्षण भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों, कवियों तथा सहदयों, ने दिए हैं। काव्य का स्वरूप यद्यपि इन लक्षणों में बँध नहीं पाता, फिर भी इन लक्षणों के अध्ययन, से हम उसके विविध रूपों और तत्वों को समझ सकते हैं | हम कुछ महत्त्वपूर्ण . लक्षणों के विश्लेषण, और विवेचन द्वारा काव्य के स्वरूप को स्पष्ट कर सकते हैं।, १.३.१.१ संस्कृत काव्य-लक्षण, संस्कृत के विद्वान -, १. आचार्य भरतमुनि :, भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' संस्कृत काव्यशास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। उन्होंने इस ग्रंथ में, नाटक में काव्य की स्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-, "मृदुललितपदाढ्यं गूढशब्दार्थहीनम् ।, जनपदंमुखबोध्यं युक्तिमनृत्ययोज्यम्।।, ४