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५» साहित्य कृतियों के माध्यम से साहित्य के शिल्प एवं सौंदर्य से परिचित कराना।, , रचना के आस्वादन एवं समीक्षेण की क्षमता विकसित करना। ः, डायरी अंश के माध्यम से उसमें व्यक्त व्यक्तित्व को समझ लेने का प्रयत्न करना।, , रे, , के, , १.2 प्रस्तावना, , प्रस्तुत डायरी अंश मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक एक साहित्यिक की डायरी” से संकलित है।, इसमें मुक्तिबोध बहुत निजी धरातल पर अपनी एक कविता की रचना प्रक्रिया का उद्घाटन करते, हुए, उसके माध्यम से आधुनिक युग के बौद्धिक मनुष्य की प्रमुख विडम्बना “सामाजिक अलगाव', की चर्चा करते है। मुक्तिबोध का कविता, कहानी और आलोचना आदि समृद्ध साहित्य होने पर, भी यह लेखक उपेक्षित ही रहा। उनके संबध में प्रसिदध आलोचक नामवर सिंह कहते है- “नई, कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है, जो छायावाद में निगला की थी। निराला के समान ही, मुक्तिबोध ने भी अपनी युग की सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा, को चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया। जिससे समकालीन काव्य का सही, मूल्यांकन हो सका।, , 7.3 विषय विवरण, , 7.3.1 गजानन माधव 'मुक्तिबोध” का परिचय, , गजानन माधन 'मुक्तिबोध' का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को मध्य प्रदेश के एक कस्बे, श्योपुर (शिवपुरी) जिला मुरैना ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुआ। माता-पिता का स्नेह उन्हें मिला।, घर में उन्हें 'बाबूसाहब” कहा जाता था। नागपुर विश्वविद्यालय से 1953 में एम.ए. की उपाधि, प्राप्त की। अध्यापन, पत्रकारिता और वायु सेना में कार्य करके अपनी जीविका चलायी। सरकार, के सूचना विभाग तथा आकाशवाणी में भी काम किया। “नया खून” नामक पत्रिका का सम्पादन, दे" मुक्तिबोध की मृत्यु 11 सितम्बर 1964 को दिल्ली में मस्तिष्क शोध की बीमारी से, हुई।, , 7.3.2 रचनाएँ, , कविता संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है (कविता संग्रह मृत्यु के बाद प्रकाशित), भूरी भूरी, खाक धूल। .
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कहानी संग्रह : काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी।, उपन्यास : विपात्र।, , न 6, ) आत्मसंघर्ष, आलोचना ४ कामायनी' : एक पुनर्विचार, नयी कविता का त्मसंघर्ष, नए साहित्य का, आत्म संघर्ष, नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समसस््याएँ।, , आत्माख्यान : एक साहित्यिक डायरी।, , 7.3.3 अकेलापन और पार्थक्य डायरी अंश का परिचय, , गजानन माधव मुक्तिबोध की स्व-लिखित डायरी “एक साहित्यिक की डायरी” में संकलित, 'अकेलापन और पार्थक््य' उनके डायरी का अंश है। साहित्य सृजन प्रक्रिया में कुछ कर दिखाने की, इच्छा में रत मुक्तिबोध का जीवन संघर्षमय रहा है। अपनी कविता के माध्यम से आधुनिक युग के, बौद्धिक मनुष्य की विडम्बना और सामाजिक अलगाव की चर्चा की है। 'अकेलापन और पार्थक्य', डायरी अंश निश्चित रूप में पाठकों के लिए प्रेरणादायी सिद्ध होगा।, , 7.3.4 अकेलापन और पार्थक्य पाठ का आशय, , अकेलापन और पार्थक्य यह गजानन माधव मुक्तिबोध के स्व-लिखित डायरी का अंश है।, उनका साहित्यिक जीवन किस प्रकार संघर्षमय रहा यह जानने के लिए उनके दवारा लिखित डायरी, “एक साहित्यिक की डायरी' को पढ़ना आवश्यक है। प्रस्तुत गद्यांश इसी डायरी से लिया गया है।, इसमें कुछ कर दिखाने की कुछ बनने की लालसा में लेखक किस प्रकार अकेले पड जाता है, समाज, से पृथक हो जाता है। इस बात का विश्लेषण किया है।, , प्रस्तुत पाठ के प्रारंभ में उल्लेखित किया है कि “कभी-कभी ऐसा भी होता है, मन अपने, को भूनकर खाता है। आज कई रोज से इसी तरह की बेचैनी दिल में घर किये रही किसे कहे, क्या, कहे!” लेखक का मन इस तरह बेचैन है। लेखक अपना जीवन सार्थक करने के लिए किताबों को, पढ़ना चाहता है। अपने विचारों, समस्याओं से मेल खानेवाली किताबों को लाइब्रेरियों में ढूँढकर पढ़ना चाहता है। वह अच्छा गुरू एवं मार्गदर्शक की तलाश में है। समस्या को बढ़ा करके बताने, वाले आधुनिकतावादी लेखक की किताब को पढ़ना मुक्तिबोध नहीं चाहते। बल्कि अपनी समस्याओं, से मेल खानेवाली किताबों को पढ़ना चाहते है।, , लेखक को लगता है कि काल लेखन की प्रक्रिया से गुजरने के कारण अमानवीय दूरियाँ उसे, घेरे हुए है। वह समाज से पृथक हो रहा है। लेखक अपने आपको .टटोलते हुए कहता है- “मै क्या
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हो सकता था, लेकिन नहीं हुआ। मुझमें महान आत्मशक्ति नहीं है। ” फिर भी अपने विचाएं के, व्यक्त करनेवाली कविता लेखक ने लिखी। सोचने विचार करने के लिए हर किसी को एकांत की, आवश्यकता होती है। लेकिन यही एकांत मनुष्य को अकेलापन देता है। लेखक कहता है, मैं अकेला, हूँ पर पृथक नहीं क्योंकि अकेलापन और पार्थक्य में अंतर होता है।, , पार्थक्य का अर्थ बडी गहराई से मुक्तिबोध ने स्पष्ट किया है। अपनी पृथकता भरी जिंदगी, पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- “आजकल आदमी में दिलचस्पी कम होती जा रही है।, सामान्यीकरण के अरूप समुदाय बढ रहे है। कविता के तत्त्वों का विश्लेषण, रचना-प्रक्रिया का मंथन, खूब चल रहा है, कविता खुद फटेहाल हो रही है। यह सब मेरे लिए पार्थक्य के कारण है।, आधुनिकता से अपनी समस्याओं को जानने के कारण लेखक का साहित्य आधुनिक बोध पे, , युक्त है।, , कविता लेखन प्रक्रिया से गुजरते हुए लेखक या कवि कैसा होना चाहिए इस बात की ओर, संकेत करते हुए मुक्तिबोध कहते है- तटस्थ रहकर या सिर्फ किनारे पर रहकर, अनगूँथे और, अनलिपटे रहनेवाले लोग वस्तुत: रक्षा के अपने मूलभूत कार्य को ध्यान में रखकर ही वैसा करते, है। मनुष्य एवं समाज से अलगाववादी दृष्टिकोण को अपनायें बगैर लेखन नहीं हो सकता। लेखक, के साहित्य लेखन का मुख्य उद्देश्य आत्मपरीक्षण है। यही उनके काव्य में दिखाई देता है। स्वान्त, सुखाय” के साथ-साथ परहित भी उनके काव्य की विशेषता दिखाई देती है।, , लेखकीय मानसिकता का चित्रण मुक्तिबोध के इस डायरी. अंश में हुआ है। अंत में आलोचना, करते हुए उन्होंने लिखा है- “सचमुच बहुत बड़ा दुरूपयोग हुआ। अपने बडे-से-बडे उत्तरदायित्व, को मैंने उठाकर फँंक दिया। बाल-बच्चों की तरफ नहीं देखा। एक विनाशक उत्तेजना और भयानक, बेचैनी में दिन-रात गुजासता रहा। स्त्री से भी कह दिया कि मुझसे ज्यादा बात न किया करे, नहीं, तो उसे अकारण अपमानित होना पडेगा।” लेखक के इस कथन से स्पष्ट होता है कि कविता लिखते, समय घर-गृहस्थी में लगनेवाला समय भी बरबाद हो गया ऐसा उनका मानना है। कविता लिखने के, बाद वह भयानक मनःस्थिति से गुजरता है तब कोई इसकी ओर ध्यान नहीं देता। लेखक आगे, , कहता है कि इस लेखन के कारण पृथकता का भाव निर्माण पार्थक्य का भाव, केवल मेरी ओर से.नहीं, सभी की ओर से है। हो गया और यह पा', , इस प्रकार प्रस्तुत पाठ में लेखक ने अपने निजी अनुभवों से लेखकीय व्यक्तित्व पर, प्रकाश डाला है। सच्चे मन से साहित्य लिखनेवाले लेखक के मन को मुक्तिबोध ने व्यक्त किया