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गजानन माधव “मुक्तिबोध', , गजानन माधव 'मुक्तिबोध” का जन्म 18 नवम्बर; 1917 को मध्य प्रदेश के, एक कस्बे श्योपुर (ग्वालियर) में हुआ। एम.ए. की उपाधि 1953 में नागएुए, विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1999 में मुक्तिबोध जी का प्रेम विवाह हुआ।, जीविका के लिए इन्होंने अध्यापन, पत्रकारिता और वायु सेना तक में कार्य, किया। इसके अलावा सरकार के सूचना विभाग तथा आकाशवाणी में भी काम, किया। “नया खून' नामक पत्रिका का सम्पादन किया। मुख्य रूप से वे कवि, तथा विचारक थे। 8 56 हर, , रचनाएँ : चाँद का मुँह टेढ़ा है: (कविता संग्रह-मृत्यु के बाद प्रकाशित), 'कामायनी : एक पुनर्विचार', “नयी कविता का आत्म संघर्ष! तथा अन्य निबन्ध,, “एक साहित्यिक की डायरी”, “नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र! , विपात्र', सतह से, , उठता आदमी” आदि अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं। मुक्तिबोध की मृत्यु 11 सितम्बर,, 1964 को दिल्ली में मस्तिष्क शोथ की बीमारी से हो गयी।, , हि प्रस्तुत अंश मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक ५ 'एक की डायरी', से संकलित है। इसमें द्ध पुस्तक 'एक साहित्यिक की डाय, , मुक्तिबोध बहुत निजी धरातल पर अपनी एक कविता, की रचना प्रक्रिया का उद्घाटन करते हुए, उसके माध्यम से आधुनिक युग के, वीद्धिक मनुष्य की प्रमुख विडम्बना 'सामाजिक अलगाव' की चर्चा करते हैं।
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अकेलापन और पार्थक्य, (डायरी अंश), , गजानन माधव “मुक्तिबोध', , कभी-कभी ऐसा भी होता है, मन अपने को भूनकर खाता है। आज कई रोज, से इसी तरह की बेचैनी दिल में घर किये रही। किसे कहें। कया कहें! तबीयत, होती है, बहुत-बहुत तबीयत होती है कि ऐसा देशी-विदेशी साहित्य हाथ में आ, जाये, जिसके द्वारा मेरी अपनी समस्याओं पर कुछ प्रकाश पड़े, कुछ राहत मिले,, कोई मार्ग प्राप्त हो। कोई ऐसा उपन्यास पढ़ने को मिल जाये, जिससे मेरी जैसी, समस्या वाले व्यक्ति का चरित्र अंकित किया गया हो। सम्भव है उस लेखक के, विचार से मेरे काम के निकलें। लाइब्रेरियों में जाता हूँ, किताबें टटोलता रहता हूँ,, कुछ पूरी पढ़ता हूँ, कुछ आधी पढ़कर वापिस कर देता हूँ। हाँ, यह एक आत्मग्रस्त, शोध है। ऐसा कहीं कोई भी मिलने का, जो मेरी समस्याओं जैसी समस्याओं और, मेरे स्वभाव जैसे स्वभाव पर कोमल, किन्तु तीव्र प्रकाश डाले, उन्हें मूर्त करे और, नाजुक तरीके से, हल्के से, बस यूँ ही, इत्मीनान दिला दे और रास्ते चलते मुझे भी, रास्ता बता दे। बस, एक गुरु की, एक मार्गदर्शी मित्र की, प्यार भरे सलाहकार की, बड़ी जरूरत है, बहुत बड़ी। उससे बहस की जा सके, ऐसा अवसर हो।, , यह सन्देह के परे है कि विभिन्न युगों में और विभिन्न देशों में, यूरोप और, अमेरिका में, चिली और जापान में, सेन फ्रांसिस्को में और मास्को में, लन्दन में, और प्राग में, दिल्ली में और तिरुवांकुर में-मेरी जैसी समस्याओं वाले और मेरे, जैसे स्वभाव वाले एक नहीं अनेकों हुए होंगे। कोई मुझे उनका लिखा उपन्यास, ला दे, या कोई निवन्ध। कविता भी चल जायेगी। यह जरूरी नहीं है कि वह, आधुनिकतावादी हो । आधुनिकतावादियों को मैंने देख लिया है। उनमें दम नहीं, है, वे पोचे हैं। वे समस्या को बड़ा करके बताते हैं, आदमी को छोटा करक नचात, हैं। वह भी एक स्वांग है।, , गजानन माधव 'मुक्तिबोध' : 55
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ही है कि हर आदमी को सोचने-विचारने के लिए, मनो-मन्थन के लिए एकान्त, चाहिए, जिसमें केवल वह ही वह हो और कोई न हो। कलाकार का जीवन चूँकि, अधिकतर मनोमय है (व्यस्त रहते हुए भी) इसीलिए मुझे एकान्त आवश्यक है।, अपने मनोमय जीवन में प्रत्येक व्यक्ति अकेला होता है। यह स्वभाव सिद्ध है।, अकेलापन और पार्थक्य में अन्तर है।, , लेकिन आप पार्थक्य को इस अलगाव को, ' क्या कीजियेगा? मेरे बहुत से, दोस्त भोपाल में, जबलपुर में, रायपुर में, दिल्ली में, इलाहाबाद में, बनारस में,, बम्बई में, उज्जैन में, इन्दौर में, अजमेर में-और न मालूम कितनी ही जगह में, हैं-यहाँ तक कि कुछ पाकिस्तान में भी हैं। मेरा अनुमान है कि जिस पार्थक्य, का मैं अनुभव करता हूँ, सम्भव है, वे भी उसी का करते होंगे। यह बिल्कुल, सही है कि पार्थक्य को दूर करने के लिए जिस सहानुभूतिपूर्ण गहरी मनुष्यता की, आवश्यकता है, वह शायद मुझसे नहीं है न केवल अपनी, वरन् अन्यों की भीतर, रोक को दूर करके उनके दिल खुलने की हालत में पैदा कर देना एक बड़ी चीज, है। मुझे कहने दीजिए कि आजकल आदमी में दिलचस्पी कम होती जा रही है।, सामान्यीकरणों के अरूप समुदाय बढ़ रहे हैं। कविता के तत्त्वों कां विश्लेषण,, रचनां-प्रक्रिया का मन्थन खूब चल रहा है, कविता -खुंद फटेहाल हो रही है। यह, सब-मेरे लिखे पार्थक्य के कारण हैं। . - पु *, , शायद मैं गलती कर रहा हूँ। यह पार्थक्य का परिणाम नहीं, वह किसी, अन्य कारण से हो। बहरहाल, यह सही है कि आदमी में और उसकी जिन्दगी में, दिलचस्पी कम होना अच्छी बात नहीं है। वह दुहरा-दण्ड है, स्व को भी, पर को, भी। मैं इसी से पीड़ित हूँ। व्यावहारिक जीवन के वास्तविक क्षेत्र में जितनी गहरी, मनुष्यता की आवश्यकता है, शायद वह मुझमें नहीं, और भी पार्थक्य, घनघोर, पार्थक्य । इसीलिए हमेशा चाहते हुए भी; संवेदनशील गद्य-उपन्यास न लिख सका।, कविता पर उत्तर आया। लेकिन नहीं, कदाचित् यह आत्मालोचन भ्रामक है।, , एक जमाना था, जब मैं यह सोचता था कि जीवन की विभिन्न, “हत्वपूर्ण मानवीय सामाजिक क्रियाओं का मैं अंश हो जाऊँ, उन प्रक्रियाओं के, नर का हिस्सेदार वनकर उस केन्द्र की सारी ऊष्मा को, सारे द्न्द्र को, उसकी, सारी समस्याओं और प्रेरणाओं को, आत्मसात कर लूँ। उस क्रिया के केन्द्र की, जाग चिनगारियों में सुलगता हुआ मैं आगे बढँ। मेरे लेखे, जीवन का सर्वोच्च, ला न्द इसी में है। किनारे पर रहकर, (डिसएंगेज्ड रहकर, अनकमिटेड रहकर), , ना भद्रलोक के सफेद कुर्तों के आरामकुर्सीदार वातावरण में भले ही, , 'हँचा दे, भले ही हम भद्रलञोक की शानदार सादगी तथा आरामदेह चमकीलेपन, , गजानन माधव 'ुद्तिबोध” : 57