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_ हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियाँ तोला कण, , थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आँखों में उतर आयी। गँड़ासे की याद हो आयी।, __ शाहनी को ओर देखा नहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल का, चुका है, पर-पर प सा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ, उसकी आँखों में तैर गये॥ वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डाँट खाढ़े, वह हवेली में पड़ा था। और-फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए--“शेरे-शेरे, उठ, पी ले।” के, , ने शाहनी के झुर्रियाँ पड़े मुँह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी।, , शेरा विचलित हो गया। आखिर शाहनी ने कया बिगाड़ा है हमारा? शाहजी के, बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को जरूर बचायेगा। लेकिन कल रात वात, , मशविरा! वह कैसे मान गया था फिरोज की बात! “सब कुछ ठीक हो जायेगा, , सामान बाँट लिया जायेगा!” ग, , “शाहनी, चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊँ!”..., , . शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे, मजबूत कदम. उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा इधर-उधर देखता जा रहा है।, , __ अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूँज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को, , मारकर ?, , ग्रर, , शाहनी!”, दा शेरे । है, , शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले खतरे की बात कुछ तो शाहनी को, बता दे, मगर वह कैसे कहे? ;, , “शाहनी...” ;, शाहनी ने सिर ऊँचा किया हा धुएँ से भर गया था। “शेरे...।, शैरा जानता है यह आग है में आज आग लगनी थी लग गयी!, , शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते-रिश्ते सब वहीं है| ., , हवेली आ गयी। शाहनी ने शून्य मन से डूयोढ़ी में कदम रखा। शेरा कब, लौट गया, उसे कुछ पता नहीं | दुर्बल-सी देह और अकेली, बिना किसी सहारे के!, न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली, खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं, , __ ही उससे छूट रहा हैं! ज्ञाहजी के घर की, मालकिन...लेकिन नहीं, आज मोह नहीं, , हट रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े साँझ हों गयी. पर उठने की बात फिर, , ._ भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवाज सुनकर चौंक उठी।, , 50 : गद्य सचयन