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पाण्डेय बेचन शर्मा “उग्र!, , पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र” का जन्म सन् 1900 में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर ज़िले, के चुनार नामक कस्बे में ब्राह्मण परिवार में हुआ। सारा जीवन आपने दरिद्रता, और तनाव में बिताया। बाल्यावस्था में ही पिताजी की मृत्यु हो गयी। आपकी, पढ़ाई अधिक नहीं हो पायी। आपने छोटी-सी उम्र में ही रामलीला मण्डलियों, के साथ देश के अनेक भागों की यात्राएँ कीं। वस्तुतः वही आपके जीवन की, वास्तविक पाठशाला रही, जिससें आपको असली शिक्षा प्राप्त हुई । इन चात्राओं, , : से ही आपको जीवन के विविध अनुभव प्राप्त हुए। फिर भी आप अलमस्त, , और मनमौजी रहे।, , _ सन् 1920 में आप “आज? दैनिक में लिखने लगे, जिससे आपके पत्रकार, जीवन का प्रारम्भ हुआ। आप बम्बई के सिनेमा जगत् में भी काफी दिनों तक, रहे। जीवन के अन्तिम दिनों में आप दिल्ली में रहने लगे। प्रमुख रूप से आप, उपन्यासकार, कहानीकार रहे। आप प्रेमचन्द युग के सबसे वदनाम उपन्यासकार, , हुए। आपने समाज की बुराइयों को बड़े साहस के साथ सपाट बयानबाजी से, प्रस्तुत किया। आपके उपन्यासों और कहानियों में भारतीय जीवन की विकृतियों, का अत्यन्त सजीव चित्रण मिलता है। कलकत्ता से निकलने वाली “'मतवाला', पत्रिका का आपने कुछ दिनों तक सम्पादन भी किया। '“बुधुआ की बेटी', 'दिल्ली, का दलाल', 'चन्द हसीनों के खतूत' आदि आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं । 'दोजख की, आग', “सनकी अमीर', “उग्र का हास्य! » निर्लज्जा', “बलात्कार', 'जब सारा आलम, तीता हैं, 'कला का पुरस्काए', 'पंजाब की महारानी', 'चिनगारियाँ', “इन्द्रधनुष',, “्यक्तिगत', रेशमी! आदि आपके कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपने, तन 1960 में अपने गुरु की इक्कीस वर्ष की जिन्दगी को लेकर 'अपनी खबर!, नामक प्रसिद्ध जीवनी लिखी। साथ ही आपने “गालिब उग्र” नाम से गालिब के, दीवान का भी सम्पादन किया । आपकी अधिकांश रचनाएँ अब उपलब्ध नहीं, 66 : गद्य संचयन
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साल और छह महीनों का था। यानी मैंने जब जरा ही आँखें खोलकर दुनिया, को देखा तो मेरा सरपरस्त कोई नहीं। प्रायः जन्मजात अनाथ-ऐसा-जिस पर, किसी का भी वरदहस्त नहीं रहा। पिता, भाई, वहन 5 कर हम चार जने,, भाभी और माता को अनाथ कर दिवंगत हुए थे। वहन वड़ी और व्याहता थी,, फिर भी घर में खाने को थे आधा दर्जन मुख और कमाने वाला हाथ एक, भी नहीं था। खेती-बाड़ी इतनी ही थी कि कर्त्ता ही उससे जीवनबापन कर, सकता था। इधर मेरे दोनों भाई रासलीला करने पर आमादा थे। कलिकाल, विकराल आ रहा था-भागा-भागा सनातन धर्म, कर्मकाण्ड, वर्ण-व्यवस्था, सारे, का सारा मण्डल जा रहा था भागा-भागा। धर्म का लोप, हो रहा था। परिवार, टूट रहा था। अर्थ-टका-युग का उदय हो रहा था। जब पिता का देहान्त, हुआ, मेरा बड़ा भाई बाइस वर्ष का रहा होगा। उसका विवाह हो चुका था।, मेरी भाभी घर पर ही थीं। मैँझला भाई सोलह-सत्रह साल का रहा होगा, जो, पिता-मरण के कुछ ही दिन के अन्दर बड़े भाई और भाभी से लड़कर घर से, अयोध्या भाग गया और साधु बनकर रामलीला-मण्डलियों में अभिनय करने, लगा था। तब मैं चार साल का था। सारे तन में पेंट परम प्रधान। मेरी देह, में वह रोग था जिसमें आयुर्वेदीय चिकित्सक लोहे की भस्म या मंडूर खिलाते, हैं। मेरी आई के मरे और जीवित अनेक बच्चे थे, पर चाची के एक कन्या के, अलावा कोई भी जीवित न था। सो, उसके मन में पुत्र का मोह था। दोनों, घरों में सबसे छोटा बालक मैं ही था। चाची मेरी आई से तो कसकर झगड़ती, थीं, लेकिन मुझे उनका वात्सल्य प्राप्त था। पाते ही प्यार से, पुचकार से वह, मुझे कुछ-न-कुछ खाने को देतीं। लेकिन इसका पता लगते ही मेरी आई से, धरित्री पर बैठ पसारे हुए पाँवों पर मुझे पट लिटा, देवरानी को दिखा-दिखा,, सुना-सुनाकर धमार की धुन में धमकती थी। एक तो ब्राह्मण क्रोधी होता ही, है, दूसरे हम परम क्रोधी कौशिक यानी विश्वामित्र के गोत्र वाले, तीसरे मेरी, _ आई अनायास ही भयानक क्रोध करने वाली थीं। मैं सोलह साल का हो गया, था तव भी वह मुझे मारने को ललकती थीं। एक बार तो अनेक झाड़ उन्होंने, ने मुझ पर झाड़ भी डाले थे। मैँझले भाई श्रीचरण पाण्डे तो क्रोधी नहीं थे,, लेकिन उमाचरण और बेचन अपने-अपने समय पर परम क्रोधी व्यक्ति बने।, हम सब में माता के स्वभाव का प्रभाव खासा था। लेकिन क्रोध माता करे या, पिता, पति करे या पत्नी, बालक करे या युवा, होता है-पाप का मूल। "जेहि, मिला, का भ्राता को। खुद बेचन पाण्डे को क्रोध का, , 70 : गद्य संचयन