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श्रीवास्तवजी का जीना दूभर हो जाता है। मित्र सलाह देते हैं कि प्रगतिशीलता, रचनाओं में अच्छी है, जीवन में नहीं। मगर इसका असली कारण आर्थिक, अभाव ही है। अन्धविश्वासों से वे ही अधिक चिपके रहते हैं, जो आर्थिक दृष्टि, से कमजोर होते हैं।, , मिथिलेश्वर : 19
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'गृह-प्रवेश, , मिथिलेश्वर, , पिछले काफी समय से श्रीवास्तवजी बहुत चिन्तित रहने लगे थे। उनकी चिन्ता, का कारण कुछ और नहीं, बल्कि उनका नया मकान और गृह-प्रवेश है। वर्ष, 197 में उन्होंने अपना यह मकान बनवाया था। उनके गृह-प्रवेश को लेकर, वह अब मुसीबत में पड़ गये हैं। उसी के कारण मेरे मुहल्ले में चर्चाओं के, विषय भी। ., , पर मुझसे उनकी दोस्ती-सी हो गयी है, जो आज तक बरकरार है। उसी, दोस्ती के नाते यहाँ उनकी समस्या पर विचार कर रहा हूँ, अन्यथा आज के, युग में आदमी को अपने से फुर्सत ही कहाँ मिल पाती है कि वह दूसरों पर, , सोच-विचार करे।, , मैं आपकरो बता दूँ, श्रीवास्तवजी भोजपुर जिले के बैसाडीह नामक गाँव के, निवासी हैं। उनके स्वर्गवासी पिता हमारे शहर आरा में प्रोफेसर थे। वर्षों पहले, उनके कस ने हमारे मुहल्ले में मकान बनवाने के लिए थोड़ी-सी जमीन ले ली, थी। लेकिन अपनी जिन्दगी में वह मकान नहीं बनवा सके थे। उसी जमीन में, +कान बनवाने के लिए श्रीवास्तव जी शहर आये थे।, , शुरू में वह हमारे, , श पुहल्ले के लिए बिल्कुल नये, अपरिचित थे। हमने अपने, | देखा था कि वर्षों से परती पड़ी ज॑मीन में मकान बनाने का काम शुरू, हे गया है। एक उबला-पतला नौजवान आदमी काफी तत्परता से मकान निर्माण, 2 मजदूरमिस्त्री को समझाते और पूरा दिन खड़ा रहकर काम कराते, हुए वह आदमी धीरे-धीरे हमारा ः, , के नाम सं ह । उसे श्रीवास्तवजी, क नाम से ही जानने लगे। प्रिचित होता गया। फिर हम उ, , 20 : गद्य संचयन
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प्रारम्भ से ही उनमें हमें बहुत सारी विशेषताएँ देखने को मिलने लगीं,, लेकिन उनकी जिस विशेषता ने हम मुहल्लेवालों का ध्यान उनकी ही खींचा,, वह उनका लेखक होना था। हिन्दी की प्रायः अनेक विशिष्ट पत्रिकाओं में उनकी, रचनाएँ छपती आ रही थीं। रचनाओं के साथ उनका सचित्र परिचय भी प्रकाशित, होता था। हमारे मुहल्ले में आ जाने के बाद अपने परिचय के साथ श्रीवास्तव, जी ने हमारे मुहल्ले और शहर का नाम भी रौशन कर दिया था, जो हमारे लिए, गर्व का विषय था।, , श्रीवास्तवजी की दूसरी विशेषता थी-रूढ़िमुक्त और प्रगतिशील जीवन, जीना। हम उन्हें बराबर रूढ़ियों, आडम्बरों और पाखण्डों से दूर ही देखा करते, थे। उनसे बातचीत के क्रम में हमें यह मालूम हुआ कि उन्होंने अपनी शादी में, रूढ़िग्रस्त धार्मिक रस्मों और आडम्बरपूर्ण बन्धनों को स्वीकार नहीं किया था।, हम उनके विचार और व्यवहार के सामंजस्य के बारे में सोच ही रहे थे कि, उनके मकान में गृह-प्रवेश की रस्म का समय आ गया। बस, हमने सब कुछ, देख लिया।, , श्रीवास्तवजी बिना किसी कुशल पण्डित को दिखाये, बिना पूजा-पाठ,, खान-पान कराये, बिना मुहल्लेवालों को भोज-भात दिये अपने दो-तीन लेखक, मित्रों को हल्के चाय-नाश्ते पर आमन्त्रित कर “गृह-प्रवेश' कर गये और अपनी, पत्नी और छोटे भाई के साथ रहने लगे। ", , श्रीवास्ततजी की इस घटना से जहाँ एक ओर मुहल्ले में उनके काफी, आलोचक हो गये, वहीं दूसरी ओर उनके प्रशंसकों की भी कमी नहीं रही। कहने, का आवश्यकता नहीं कि मैं उनका सबसे पहला प्रशंसक बना। बाद में वैचारिक, समानता के कारण हम शीघ्र ही एक-दूसरे के घनिष्ठ हो गये।, , श्रीवास्तव जी को परिवार बहुत बड़ा है, यह हमें बाद में पता चला। उनकी, माँ, दादी, एक विधवा बुआ, चार बहनें, दो छोटे भाई, भाइयों की पत्नियाँ,, , बच्चे-एक पूरी फौज। सब लोग श्रीवास्तव जी के साथ आकर शहर में रहने, , लगे। अब श्रीवास्तव जी की स्थिति हमें बहुत दयनीय लगने लगी। एक छोटे, , मकान में इतने बड़े परिवार के आ जाने से दिक्कत तो हो ही गयी थी, साथ ही, परिवार का उनके प्रति उपेक्षणीय व्यवहार देखकर हम दंग रह गये। हमने सोचा, था कि इतने बड़े लेखक का घर में काफी सम्मान होगा, लेकिन घर के लिए वह, एक निहायत फालतू चीज थे।, , उनके परिवार के लोगों से पता चला कि. श्रीवास्तव जी ठीक आदमी नहीं, हैं; कि लेखन के चलते उन्होंने कोई नौकरी नहीं की; कि उनके लेखन से कोई, , मिथिलेश्वर : 21
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उन्होंने नौकरी के लिए निर्धारित उप्र ७), ख्वांस आय नहीं है; कि ०3-५४ की बात करते हैं जब व, दी; कि वह का हे लगा सकते; कि दोनों जून दाल-रोटी का सता, कर सकते। बाप-दादों की पुश्लैनी जमीन बेचकर शहर में मकान के, रहे हैं कह श्रीवास्तव जी से बातचीत जा पता चला कि उ्क्ष, कोई दोष नहीं है। नौकरी के लिए उन्होंने काफी गा ग की थी, लेकिन, भाई-भतीजा प्रधान इस युग में उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिल सकी । जमीन का, एक छोटा हिस्सा बेचकर शहर में उन्होंने मकान इसीलिए बनवाया कि शहर;, रहकर छोटे भाई-बहनों को पढ़ायें-लिखायें तथा. नौकरी की तलाश करें। आज 5, युग में गाँव में रहकर नौकरी पाना कितना असम्भव है।, , श्रीवास्तव जी के स्पष्टीकरण ने उनके प्रति मेरे मन में संशय पैदा नह, होने दिया। मैं पूर्वतः उन्हें श्रद्धा देता रहा; हालाँकि पारिवारिक स्तर पर उन, स्थिति देख मैं दुखी भी हो उठता था।, , एक दिन पारिवारिक सन्दर्भ पर बातचीत के क्रम में उन्होंने मुझे बताया, कि किसी भी सच्चे प्रगतिशील आदमी की लड़ाई की शुरुआत अपने घर से होते, , है। फिर बाद में वह टोला-पड़ोस होते हुए सामाजिक लड़ाई का रूप लेती है।, , मैं देख रहा था, सचमुच वह अपने परिवार से लड़ रहे थे-परमपपणाओं,, , रूढ़ियों और संस्कारों के स्तर पर। लेकिन गृह-प्रवेश के सन्दर्भ ने उन्हें लड़ने नही, दिया। पछाड़ दिया और वह पराजित हो गये।, , असल में उनका परिवार यह नहीं जानता था कि 'गृह-प्रवेश' के नाम पर, बिना विशेष पूजा-पाठ किये दो-एक लेखकों के साथ वह इस नये मकान में, जार भी विषय को अपने परिवार से गुप्त ही रखा वा 3, अीशाऔशो ह+ 8 नहीं करते थे। लेकिन टोला-पड़ोस से उ, , गयी। उनकी माँ, दादी फिर उनके घर में, कॉँव-किच मचनी प्रार्भ हे, , बहनें भाइयों आवाज उठी, कि ऐसा / जआ, बहनें और छोटे भाइयों तक ने यह आवाज उठः, कब ला हिए था। पता नहीं, यह जमीन कैसी है? क्या अरिष, है कि रूढ़ियों से सौ, ही रहे। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उनकी हे, का | कंतराकर आगे निकल जाओ । परिवार प, पने आप उस काम को स्वीक | काम करते जाओ, धीरे-धीरे पति, , मा कर लेगा और वह स्वयं अपने परिवार के