Page 1 :
कथा-साठित्य, , मन्नू भण्डारी, , मन्नू भण्डारी का जन्म 3 अप्रैल, 1981 को मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ।, मन्नू जी का बचपन का नाम महेन्द्र कुमारी था। घर के लोग उन्हें प्यार से मन्नू, नाम से पुकारते थे। आज वही नाम हिन्दी साहित्य जगत् में रूढ़ और प्रसिद्ध है।, मन्नूजी की उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पूर्ण हुई। उन्होंने दिल्ली, विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में एक कुशल मेधावी अध्यापिका के रूप में, पर्याप्त ख्याति प्राप्त की। वस्तुतः साहित्य लेखन एवं अध्ययन के संस्कार उन्हें, बचपन से ही प्राप्त हुए थे। उनके पिताजी श्री सुख सम्पतराय हिन्दी पारिभाषिक, कोश के निर्माता थे। साथ ही कलकत्ता में अध्यापन करते समय ही उनका, सम्पर्क राजेन्द्र यादवजी से हुआ। तत्पश्चातू मन्नूजी का सुप्रसिद्ध साहित्यकार, राजेन्द्र यादवजी के साथ सन् 1959 में अन्तर्जातीय विवाह हुआ। उनका इस, तरह विवाह करना उन दिनों परम्परा और समाज की दृष्टि से विद्रोह ही था।, दोनों में साहित्यिक रुचि एवं काबिलियत होने के कारण साहित्य ही उनके बीच, प्रेम का सेतु बन गया था। तत्पश्चात् मन््नूजी, पति की प्रेरणा और सहयोग से, हिन्दी साहित्य जगत में अपना अलग स्थान, पहचान निर्मित करती हैं। हालाँकि, स्वभावगत भिन्नताएँ ही दोनों में दरारों निर्माण करती हैं और दोनों आखिरकार, अलग-अलग रहने के लिए विवश हो जाते हैं।, , प्रकाशित रचनाएँ, , आत्मकथा : एक कहानी यह भी।, , कहानी साहित्य : मैं हार गयी, तीन निगाहों की तस्वीर, यही सच है, एक, प्लेट सैलाब, त्रिशंकु आदि।, , उपन्यास साहित्य : एक इंच मुस्कान (सहयोगी उपन्यास), आपका बंटी,, स्वामी, महाभोज आदि, , नाटक : बिना दीवारों के घर, महाभोज (नाट्य रूपान्तर) आदि।, , मन्नू भण्डारी : 9, , ६3315 जज
Page 2 :
|, , मन्नूजी के लेखन में नारी के अन्तर्द्ध और उनकी एकाकी मनःस्थिति, ऊआा व्याख्यान ही दृष्टिगत होता है। जीवन की सन्तुलनता, टूटते रिश्तों और, सामाजिक दबावों के बीच अपने अस्तित्व के लिए जूझती नारी के अन्तर्मन को, अपनी कहानियों और उपन्यासों में मन्नू जी बड़ी कुशलता से रूपायित करती, हैं। इस स्थिति में वह समाज की सड़ी-गली परम्पराओं पर तीखा प्रहार करती, हैं। उनकी भाषा सहज, पर प्रभावोत्यादक है।, , 'मैं हार गयी' कहानी संग्रह में संकलित प्रस्तुत कहानी 'जीती बाजी की हार, में लेखिका ने 'मुरला' के माध्यम से व्यक्ति के सामाजिक दायित्व को मनोवैज्ञानिक, ढंग से प्रस्तुत किया है। आशा, नलिनी और मुरला कॉलेज की सहेलियाँ हैं, तीनों, की दुनिया अन्यों से अलग है। तीनों कॉलेज, किताबों, साहित्यिक बहस और खुद, के करियर को ही सब कुछ मानती हैं। वे अपने आपको पुरषी दासता से दूर, रखना चाहती हैं। तीनों नारी स्वतन्त्रता की समर्थक हैं। विवाह संस्था से दूर रहना, चाहती हैं। पर विवशता के कारण शिक्षा कर्म अधूरा छोड़कर आशा और नलिनी, को गृहस्थी बसानी पड़ती है। अरला उच्च विद्या विभूषित हो जाती है और शिक्षा, विभाग में एक ऊँचे पद पर पहुँच जाती है। वह अविवाहिता है। अविवाहित रहने, की बाजी वह आशा से जीत जाती है। पर अन्तः- में वह हारी हुई आशा से शर्त के, अनुसार उसकी बेटी की माँग करती है और उसकी जीती बाजी की हार हो जाती, है। समाजरूपी नैया को चलाना है तो सामाजिक मान्यताओं का पालन जरूरी है।, प्रत्येक व्यक्ति को अपने सामाजिक दायित्व को समझकर उसे निभाना चाहिए।, , 10 : गद्य संचयन
Page 3 :
०० 0431, , ८0५ >, २ ु&, #[ [|81२61२४ )«&, , कार, जीती बाजी की हार, ७, , मन्नू भण्डारी, , कॉलेज में तीन लड़कियाँ आयीं। नाम॑ थे आशा, नलिनी और मुरला। अन्य, लड़कियों से दूर, तीनों ने अपनी अलग ही दुनिया बना ली। फुर्सत के समय या, तो तीनों पुस्तकालय में बैठी रहतीं या पढ़ी हुई पुस्तकों पर बहस करतीं। कवि,, लेखक, उपन्यासकार सभी उनकी आलोचना का शिकार बनते और आलोचना, भी ऐसी-वैसी नहीं, उसमें मौलिकता रहती थी, उनका अपना-अपना दृष्टिकोण, रहता था-जो सुनता, दाद दिये बिना नहीं रहता। वैसे तो सभी विषयों की ओर, उनकी रुचि थी, फिर भी साहित्य की ओर कुछ अधिक ही झुकाव था। पढ़ना,, लिखना और बहस करना इसके अतिरिक्त इन बुद्धिजीवी लड़कियों की रुचि, और किसी में नहीं थी। साज-श्वृंगार की ओर से, जो इस उम्र की लड़कियों की, रुचि का मुख्य विषय रहता है-ये तीनों कितना उदासीन थीं, इसका अनुमान, उनके बिखरे बालों और कपड़ों से सहज ही लगाया जा सकता था। सिलाई,, बुनाई और कढ़ाई-जो लड़कियों का अवकाश बिताने का मुख्य साधन रहा करते,, ये कभी भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सके थे। शादी, सिनेमा, कपड़ों, का लेटेस्ट फैशन-जो लड़कियों की चर्चा का मुख्य विषय रहा करते थे, इनसे, कोसों दूर थे। कॉलेज में कुछ लड़कियाँ विवाहित भी थीं। वे सदैव अपने-अपने, पतियों की रुचि-अरुचि का बखान करती रहती थीं और ग्रामोफोन-रिकॉर्डर की, तरह उनके विचारों को ही उगला करती थीं। ऐसी लड़कियों पर इन तीनों को, बेहद तरस आता था-ऐसा तरस जिसमें उनके प्रति सहानुभूति की अपेक्षा अपने, अहं की भावना ही अधिक रहती थी। एक पढ़ी-लिख़ी लड़की किस प्रकार अपने, विचारों और व्यक्तित्व का खून करके ०० 4 ति के रंग में रंग सकती है,, यह बात इन बुद्धिजीवी और अपने ही व्यक्तित्व के भार से दबी लड़कियों के, , 121 05, , मन्नू भण्डारी : 11
Page 4 :
लिए कल्पनातीत थी। अन्य लड़कियों के हीनता से भरे जीवन पर सदा ही ये, तरस खाया करतीं। शायद शिक्षा का ऐसा दुरुपयोग उन्हें तरस खाने पर मजबूर, कर देता था।, , पूरा वर्ष व्यतीत हो गया। कॉलेज के जीवन में ये लोग बहुत घुल-मिल, तो नहीं पायीं, पर इन्होंने ख्याति बहुत प्राप्त कर ली-कुछ अपने असाधारण, व्यक्तित्व के कारण, कुछ अपनी विद्धता के कारण। गर्मियों की छुटिटयों में तीनों, घूमने चली गयीं। तीनों में पत्र-व्यवहार चलता रहा। पत्रों का मुख्य विषय रहता,, पढ़ी हुई पुस्तकों की समालोचना। छुट्टियाँ व्यतीत करके तीनों लौट आयीं।, पर इस बार आशा और मुरला ने देखा कि नलिनी कुछ बदल गयी है। बात, करते-करते वह शून्य की ओर देखने लगती है, पृष्ठ खोलकर बैठी रहती है, पर, एक घण्टे बाद जाकर भी देखो तो उसकी संख्या नहीं बदलती, पढ़ने में उसकी, तबियत नहीं लगती, मन बस उचटा-उचटा रहता है, और अन्त में एक दिन, उसने बताया कि उसका सम्बन्ध पक्का हो गया है और जल्दी ही उसे शादी भी, करनी पड़ेगी। उसके कहने के ढंग से लग रहा था कि उसमें उत्साह की अपेक्षा, विवशता अधिक है। मुरला तो मानों आसमान से गिर पड़ी, प्रश्नों की बौछार-सी, कर दी। सब उत्तरों का सारांश यही था कि घर का वातावरण देखते हुए वह, जानती थी कि शादी उसे करनी ही पड़ेगी और इसीलिए जब उसे अपने अनुकूल, पात्र नजर आया तो स्वीकृति दे दी। अपने अनुकूल पात्र के विषय में उसने, बताया कि वह विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, स्वतन्त्र प्रकृति के व्यक्ति हैं और, सभी कुछ बस अच्छा ही है।, , मुरला को नलिनी का विवश भाव से यह सब मान लेना पसन्द नहीं आया।, वातावरण क्या खाक करेगा, अपनी इच्छा न हो तो घर का वातावरण क्या, वह, तो दुनिया को बदल दे। नलिनी बिना बी.ए. की परीक्षा दिये ही विवाह करके, चली गयी। पुस्तकें सब साथ ढोकर ले गयी कि पढ़ाई करके वह मार्च में परीक्षा, देने जरूर आयेगी। पर मार्च में उसके स्थान पर उसका एक भूला-भटका-सा पत्र, आया कि अवकाश के अभाव में वह तैयारी नहीं कर सकी। अतः वह इस साल, परीक्षा नहीं देगी। मुरला और आशा को उसके अमूल्य एक वर्ष की बर्बादी पर, बेहद दुख हुआ और आश्चर्य भी कि ऐसी क्या समय की कमी आ पड़ी थी जो, , वह पढ़ाई नहीं कर सकी। उनके विचार से तो पढ़ाई के लिए सब काम छोड़े, जा सकते थे।, , पूरे डेढ़ वर्ष बाद नलिनी अपनी पाँच महीने, , हीने की कन्या को लेकर आयी।, मुरला और आशा खबर मिलते ही उससे मिलने, , लने गयीं। उसं समय वह शायद, 12 : गद्य संचयन
Page 5 :
कहीं बाहर जाने को तैयार खड़ी थी। वेश-भूषा देखकर एक बार तो उन्हें अपनी, आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, पर अविश्वास करने का कोई कारण भी नहीं, धा। वह ऊपर से नीचे तक सजी-सँवरी, लिपी-पुती बिल्कुल गुड़िया लग रही, थी। नलिनी देखते ही दोनों से लिपट गयी। पर मुरला तो आश्चर्य के मारे, अपनी स्वाभाविकता को भी खो बैठी थी। वह सोच रही थी कि जिस नलिनी, ने कभी भूलकर भी अच्छी साड़ी नहीं पहनी, अपने को सजाया नहीं, वहीं यह, सजना-सजाना कैसे सीख गयी, और शायद मन-ही-मन वह अनुमान भी लगा, रही थी उस समय का, जो इस प्रसाधन में उसने व्यर्थ गँवाया होगा।, , नलिनी ने उनके हाल-चाल पूछे, कॉलेज के हाल-चाल पूछे और फिर अपने, हाल-चाल का ब्योरा आरम्भ किया। कितना समय वह घर सँभालती है, कितना, समय बच्ची पर देती है, फिर शाम को क्लब जाती है। क्लब के जीवन पर भी, उसने प्रकाश डाला। फिर बताया कि वह आजकल केवल किताबी कीड़ा ही नहीं, रही, काफी काम की लड़की हो गयी है। उसने सिलाई सीख ली है और घर, पर ही सिलाई करके काफी किफायत कर लेती है। घर के बाद पति का नम्बर _, आया तो विद्यार्थियों की समस्याओं पर, आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के दोषों पर,, अनुशासन की कमी पर एक सधा-सधाया भाषण ठोंक दिया। मानो उसके पति, नहीं, वह स्वयं ही प्रोफेसर हो और रोज ही इन समस्याओं का सामना करती, हो। साथ ही यह बताने में भी नहीं चूकी कि विद्यार्थियों में उसके पति कितने, सर्वप्रिय हैं। हें, , पति के बाद बच्ची का नम्बर आया। बच्ची गोद में लेकर उसने उसकी, अदाओं की, उसकी समझदारी की बातों का जो सिलसिला आरम्भ किया तो वह, यह भूल ही गयी कि जरा यह भी तो देख ले कि सामने वाले भी उसमें रुचि ले, रहे हैं या नहीं। परिणाम यह हुआ कि आशा और मुरला ने उकताहट भरे स्वर, में कहा, “अब चलेंगे,” और दोनों उसे घर आने का निमन्त्रण देकर चल दीं।, , बाहर निकलते ही आशा ने कहा, “मेरा घर, मेरा पति, मेरी बच्ची! मानो, इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं दुनिया में। उस पाँच महीने के मांस के, लोथड़े में उसे जाने कहाँ की समझ और होशियारी दिखाई दे रही थी। बुरी तरह, “बोर' कर दिया ।” नलिनी जैसी लड़की भी इस तरह बदल सकती है, पुस्तकों, से नाता तोड़ परिवार की सीमा में बँध सकती है, यह उनके लिए आश्चर्य ही, नहीं, घोर दुख का कारण भी था।, , दोनों ने एम.ए. का प्रथम वर्ष समाप्त किया। अब द्वितीय वर्ष की लैयारी, थी। इस बार दोनों ने निश्चय किया कि वे यूनिवर्सिटी का प्रथम और द्वितीय, , मन्नू भण्डारी : 13