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6. सिक्का - कृष्णा सोकती, अमुक्रम, 6.1. उद्देश्य, 6.2 प्रस्तावना, , 6.3 विषय विवेचन, 6.3.1 कृष्णा सोबती' का परिचय, , 6.3.2 सिक्का बदल गया' कहानी का परिचय, , (ऋ)
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6.3.3 सिक्का बदल गया' कहानी का कथानक, 6.4. स्वयं-अध्ययन के लिए प्रश्न, 6.5 पारिभाषिक शब्द, शब्दार्थ, 6.6 स्वयं-अध्ययन प्रश्नों के उत्तर, 6.7. सारांश, 6.8 स्वाध्याय, 6.9 क्षेत्रीय कार्य, , 6.10 अतिरिक्त अध्ययन के लिए।, , 6.1 उद्देश्य, , प्रस्तुत इकाई के अध्ययन के बाद आप, * कृष्णा सोबती की रचना संसार से परिचित होंगे।, , * विभाजन की त्रासदी को जान जायेंगे।, , * विभाजन के उत्पन्न अराजकता को देख सकेंगे।, , * इन्सानियत के संबंधों की जानकारी पायेंगे।, , * मानवीय संबंधों में आयी दीवारों के बारे में सोचेंगे।, , 6.2 प्रस्तावना, , नयी कहानी आंदोलन की अग्रणी लेखिका कृष्णा सोबती द्वारा लिखित कहानी “सिक्का, बदल गया भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी पर आधारित है। यह कहानी नायिकाप्रधान है।, कहानी के प्रमुख पात्र शाहनी के उदारदिल व्यक्तित्त की विशेषताओं को उभारा गया है। धर्म और, सम्प्रदाय भेद के कारण शाहनी के टुकडों पर पलनेवाला शेरा कई कत्ल करता है। शाहनी विभाजन, की परेशानियों से अपना घर छोड़कर अन्य शरणार्थियों के साथ जाते समय सोना, चाँदी, गहने, नकद, रु, घर में छोड़कर चली जाती है। एक समय संपननता का अपने जीवन में अनुभव करनेवाली शाहनी, राजनीतिक बदले हुए संदर्भों पर सोचती है। राजकाज बदल गया तो सिक्का क्या बदलेगा? उसे तो
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छोड़कर आ गयी थी। शाहनी भाईचारा, उदासता, स्नेहशीलता, सहाय गुण ह सतामिमात ओर, वही छोड़कर आ शाहनी अपने असीम उच्चतम गुणों के कारण अपनी एक, , गुणों से युक्त निधर्मी चरित्र की शा, सिशिएे कीओ रण करके पाठकों के मन पर अमिट छाप छोडती है। पूरी कहानी विडम्बना के, शेष्ठ पहचान, , साथ करूण क्रंदन हमारे संमुख भ्रस्तुत करती है।, , 6.3 विषय विवेचन, , 6.3.1 कृष्णा सोबती का परिचय, , प्रगतिशील महिला रचनाकारों में शीर्षस्थ कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 में गुजरात, में हुआ। उनकी कहानियों में पंजाबी भाषा के कई शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। 1950, के दशक में उन्होंने अपनी सचनाधर्मिता का ग्रारंभ किया। स्त्री विमर्श से प्रेरित उनके साहित्य को, खुशवंतसिंह, नामवरसिंह, देवराज उपाध्याय आदि महानुभावों ने सराहा है। उनके साहित्य को पढ़ने, के बाद पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। उनकी रचनाओं में पारिवारिक तथा सामाजिक, विषमताओं का प्रखर विरोध चित्रित होता है।, , एछ रचनाएँ , ह “लामा' (कहानी), बादलों के घेरे', 'डार के बिघुडी', तीन पहाड़”, मित्रों मरजानी (कहानी, संग्रह), 'बदरी बरस गयीं! (कहानी), 'डार से बिछुडी' (उपन्यास), 'जिन्दगीनामा' (उपन्यास), प्यारों, के यार (लम्बी कहानी), गुलाब जल गँडेरिया,, दादी माँ (कहानी) आदि।, , 6.3.2 'सिक्का बदल गया” कहानी का परिचय, , प्रस्तुत कहानी विभाजन के पश्चात मानवीय संबंधों में आयी दरारों को बड़ी शोचनीयता के, साथ अभिव्यक्त करती है। परिस्थितियों के कारण नैतिकता में आयी भारी गिरावट का वर्णन इस, कहानी में किया गया है। साहनी का आदर्श व्यक्तित्त्व मात्र इन सभी मानवीय पतनशीलताओं को, छेद देता छा आता है। विभाजन भारत-पाकिस्तान का नहीं तो दो दिलों का हो गया था।, इसमें दोनों देश के लोक हमेशा-हमेशा के लिए एक-दूसरे से बिखर गये थे। संपत्ति से भी, दो मन के टूटने का दर्द अधिक गहरा बन गया था। इन्सानियत, मानवीयता मिट्टी में हिकामत) थी।, सिर्फ बच गयी थी वह दरिन्दगी जो सारे मानवीय संबंधों को ध्वस्त कर रही थी। थानेदार दाऊद खाँ, , के कहनेपर भी शाहनी अपनी सारी संपत्ति, घर-बार छोड़कर एक अजीब-सी विरक्ति के साथ खाली
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हाथ शरणार्थियों को लेकर जानेवाले ट्रक में बैठती है तब कातिल बने शेरा की भी आँखें भर आती, है। अपने चरित्रगत विशेषताओं के कारण साहनी अपने व्यक्तित्व को महानता की ओर लेकर जाती, है। विभाजन से जहाँ अमानवीयता का माहौल चारों तरफ दिखाई देता है वहीं दूसरी ओर शाहनी, अपनी त्याग भावना का परिचय देती ह। ह, , 6.3.3 "सिक्का बदल गया! कहानी का कथानक, , इस कहानी का आरंभ प्रात:काल के समय होता है, जब कहानी की नायिका शाहनी दरिया, के किनारे खद॒दर की चादर ओढ़कर हाथ में माला लिये गामनाम का जाप करते हुए सुर्य देवता को, वंदन करते हुए स्नान के लिए पानी में उतरती है। आसमान में लाल रंग फैला हआ है। चिनाब नदी, का पानी काफी ठंड़ा था। सामने कश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ पिघलता हुआ नजर आ रहा था। रेत, में कुछ ही दूरी पर कई पाँवों के निशान दिखाई दे रहे थे। वह कुछ क्षणों के लिए दूर गयी। सुबह, के सुहावने परिवेश में थोड़ी भयावहता महसूस हो रही थी।, , पिछले करीबन पचास वर्षों से वह इस जगह पर नहाती आ रही थी। किसी दिन वह दुल्हन, बनकर यहाँ आयी थी। कितने साल बीच में गुजर गये। आज न ही उसका शौहर था न पढ़ा-ल्खि, बच्चा। वह अपने जीवन में बिल्कुल अकेलेपन की समस्या को ढ़ोती जी रही थी। बड़ी हवेली में, अकेली रहती थी। जीवन के व्यवहारों को लेकर अपने दिन काट रही थी। स्नान के बाद बाजरे के, खेतों से गुजरती घर की तरफ चल पड़ी। कई घरों के आँगनों से धुआँ उठ रहा था तो कई बैलों, के गले की घंटियाँ बज रही थी। शाहनी की शान किसी जर्मीदार से कम नहीं थी। दूर तक फैले, फसल के लहलहाते खेत उसके अपने थे। घर में काफी बरकत थी। साल में खेती में तीन बार सोने, जैसी फसल उगती थी। कुएँ की तरफ आते ही उसने शेरा को पुकार। उसकी माँ की मृत्यू के पश्चात, शाहनी ने ही उसका लालन-पालन किया।, , जोर से पुकारने पर शेरा को शाहनी का गुस्सा आ गया। वह गालियाँ देने लगा, भला-बुरा, कहने लगा तभी शाहनी पास आकर हसैना को न लड़ने-झगड़ने की सलाह देती है। उसे अपने शेरे, से भी बहू अधिक प्यारी लगती है। वह शेरे से कुल्लूबाल के लोगों के बारे में पूँछती है। शेर डरकर, इन्कार कर देता है। शाहनी को अचानक अपने शाहजी की याद आयी। उस स्थान पर जो तणावपूर्ण, स्थितियों का निर्माण हुआ था, शाहनी को वह अच्छा नहीं लगा था। उसे लगता है कि आज, शाहजी होते तो निश्चित कोई ना कोई पर्याय निकालते। विभाजन की जहरीली हवा ने पूरे माहौल, को प्रदूषित किया था। शेरा ने पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल किये थे।, , बचपन में कई बार शेरा शाहजी की डॉट खा चुका था। शाहनी उसे समझाती-बुझाती और, , त्गः
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दूध पिला देती। शेर को लगता है कि भाई-बन्दों से ब्याज खा-खाकर शाहजी संपन्न बन गये थे।, उसकी आँखों में बदले की भावना आ रही थी किंतु शाहनी ने उसका क्या बिगाड़ा था? उसके कुछ, साथी शाहनी को मारने की बात कर रहे थे। वह तो शाहनी: को बचाना चाहता था इसलिए तुर्ं, उठकर शाहनी को घर तक छोड़ने के लिए आशंकित मन से चलने लगा। शेरा उसे आनेवाले खतरे, की सूचना देना चाहता था मगर सवाल यह था कि कैसे कहे? किस मुँह से कहे ?, , हवेली आते ही शाहनी शूत्यता से प्रवेश करती है। बेसहारा, अकेली, दुबली-पतली शाहनी, विभाजन से उत्पन्न मारकाट, आगजनी की घटनाओं से काफी अस्वस्थ हो गयी थी। एक अजीबसी विरक्ति उसके मन पर छा गयी तभी रसूली ने शाहनी को ट्रकों के आने की खबर दी। कौनसी, ट्रक? सवाल पर भी और सवाल था..... अपने ही मन से। आगे बीवी विकृतिभरे स्वर में विभाजन, की, अँधेरा छाने की कल्पना देती है। शाहनी पुतले की तरह निश्चल अपनी जगह पर खड़ी रही।, नवाब की बीवी उसे बहुत कुछ सुनाने लगी। शाहनी ने भाँप लिया कि आखिर यहाँ से अलग होकर, जाने का वक्त आ गया। एक जमाने में पूरा गाँव शाहनी के परिवार के एक इशारे पर चलता था, लेकिन आज वह बिल्कुल अंकेली थी। कुल्लूबाल के जाटों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी थी। बेगू, पटवारी और मुल्ला इस्माईल ने शाहनी के पास जाकर रब को शायद यहीं मंजूर था यह कहा तो, , शाहनी के पैर लड़खड़ाने लगे, उसे चक्कर आ गया। बेगू शाहनी के हालातों पर सोचने लगा लेकिन, निरूपाय था, सिक्का बदल गया था।, , शाहनी को हवेली से निकलना था। ये वही हवेली थी जहाँ गाँव के सारे फैसलें, सलाहमशवरें होते रहते थे। हवेली को लूटने की भी बात हुई। शाहनी सब कुछ जानकर भी अनजान रही।, वह किसीसे बैर नहीं रखना चाहती थी। सिक्का बदलने की बात उसने कभी नहीं सोची थी। थानेदार, दाऊद खाँ सामने आकर खड़ा हुआ, जिसकी मंगेतर को कभी शाहनी ने सोने के कर्णफूल दिये थे।, कई दिन पहले उसने शाहनी से भागोवाल मस्जीत बनाने के लिए सख्ती से तीन सौ रुपये लिये थे।, शाहनी के चलते समय दाऊद खाँ उसे सोना-चाँदी, नकद रुपये लेकर जाने के लिए कहता है तो, , शाहनी इसके लिए इन्कार करती है। वक्त के बदलते पर वह गहरी निराशा और तिरस्कृत भावना, से जिन्दा न रहने की बात करती हैं।, , बदले हुए वक्त के कारण उसे अपने ही घर में देर हो रही थी। पुरखों द्वारा बनाये हुए घर, की रानी आज हतबुद्ध सी हो गयी। उसके अन्न पर पले हुए उसे उसके घर से देर होने का अहसास, दिला रहे थे। शाहनी ने सोचा कि जिस सम्मान से वह इस घर की बहू बनकर आयी थी। आज, , उसी शान से वह यहाँसे बिदा होगी। खुद को सँभालते हुए भरी हुई आँखों को पोंछती हुई शाहनी, (४)