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1.4 स्वयं, अध्ययन के लिए प्रश्न, -, 1.5 पारिभाषिक शब्द, शब्दार्थ, 1.6 स्वयं, अध्ययन प्रश्नों के उत्तर, 1.7 सारांश, 1.8, स्वाध्याय, 1.9 क्षेत्रीय कार्य, 1.10 अतिरिक्त अध्ययन के लिए, 1.1 उद्देश्य :, इस इकाई के अध्ययन के बाद आप,, 1., काव्य (साहित्य) शब्द के अर्थ और स्वरूप से परिचित होंगे।, 2., भारतीय एवं पार्चात्य विद्वानों द्वारा बताए गए काव्य (साहित्य) के लक्षणों को पढकर साहित्य का, स्वरूप समझने में सक्षम होंगे, 3., काव्य (साहित्य) के विभिन्न तत्त्वों से परिचित होंगे।, 4., काव्य प्रयोजनों से परिचित होंगे।, 5., काव्य (साहित्य) के महत्त्व को समझ सकेंगे।, 1.2 प्रस्तावना :, साहित्य के सम्यक अनुशीलन का कार्य साहित्यशास्त्र के अंतर्गत होता है। जिसमें साहित्य की विभिन्न, विधाओं का शास्त्रीय दृष्टि से सांगोपांग विवेचन किया जाता है। 'शास्त्र' शब्द संस्कृत 'शास्' धातु से बना हुआ, है, जिसका अर्थ है अनुशासन। साहित्यशास्त्र हमें साहित्य के विषय में अनुशासित करता है । साथ ही साहित्य, निर्माण के नियमों की जानकारी भी प्रदान करता है। साहित्यशास्त्र के लिए 'काव्यशास्त्र', काव्यालोचन और, काव्यमीमांसा जैसे शब्द भी प्रचलित है। प्राचीन काल में तो इसके लिए 'अलंकार शास्त्र' का भी प्रयोग होता, था। कालांतर में इस शब्द की व्याप्ति संकुचित होती गयी और इसी स्थान पर साहित्यशास्त्र नाम रूढ होता चला, गया।, विश्व की लगभग सभी भाषाओं के साहित्य में काव्यशास्त्र पर विचार हुआ है। अध्ययन की सुविधा, की दृष्टि से इसके भारतीय तथा पार्चात्य दो भेद किए जाते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में उपलब्ध ग्रंथों, के आधार पर भरतमुनि को काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य माना जाता है। उनका 'नाट्यशास्त्र' ग्रंथ भारतीय, काव्यशास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। अत: इसमें काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों का विवेचन-विश्लेषण, मिलता है।
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माध्यम से ही होता है। काव्य समाज की विभिन्न, मनुष्य को उचित दिशा निर्देशन करने का काम काव्य, उलझनों को वाणी प्रदान करने का काम करता है । लेकिन किसी भी रचना को जन्म देते समय रचनाकार को, साहित्यशास्त्र के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक होता है। आज हमारी भारतीय काव्यशास्त्रीय परंपरा, अत्यंत समृद्ध और विकसित नजर आती है। इस परंपरा को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से विभिन्न कालों, में विभाजित किया गया है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परंपरा भी बहुत ही पुरानी हैं| आरंभ में उसका विकास, यूनान में हुआ और फिर रोम में । प्लेटो, अरस्तू, लौंजाइनस, होरेस तथा क्विंटीलियन इस प्राचीन परंपरा के, निर्माता रहे हैं।, प्राचीन भारतीय ग्रंथों में काव्य के लिए 'वाङ्मय' शब्द का प्रयोग मिलता है । काव्य शब्द 'कवि' से, प्रचलित है। साथ ही वह अंग्रेजी शब्द 'Poetry' का अनुवाद है। साहित्य अंग्रेजी शब्द 'Literature' का, पर्यायवाची माना जाता है। जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द Letter से हुई है। साहित्य शब्द का प्रयोग सातवीं-, आठवीं शताब्दी से मिलता है। इससे पूर्व साहित्य शब्द के लिए 'काव्य' शब्द का प्रयोग होता था। आज, 'काव्य' शब्द केवल पद्य रचनाओं के लिए ही प्रयुक्त होने लगा है ।, काव्य के सृजन में भाव तत्त्व, कल्पना तत्त्व, बुद्धि तत्त्व और शैली तत्त्व का योगदान महत्त्वपूर्ण है।, संस्कृत के आचार्यों से लेकर आज तक के आचार्यों ने अपने- अपने विचारों के अनुसार काव्य के विभिन्न रूपों, का उल्लेख किया है। काव्य निर्माण के पीछे कवि का कोई न कोई उद्देश्य निहित रहता ही है। बिना उद्देश्य, के किसी रचना का का सृजन होता ही नहीं है। केवल समय के अनुसार उद्देश्य बदलते रहते हैं।, पाठ्यक्रम में साहित्य का स्वरूप, तत्त्व और प्रयोजनों का समावेश किया गया है। इसके अंतर्गत हमें, विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के द्वारा काव्य के स्वरूप को समझ लेना है। साथ ही काव्य के विभिन्न तत्त्वों, की जानकारी लेते हुए विभिन्न विद्वानों के काव्य प्रयोजन संबंधी विचारों का अध्ययन करना है।, 1.3 विषय - विवेचन :, अब हम काव्य के स्वरूप, काव्य के तत्त्व और काव्य के प्रयोजन का विस्तार से अध्ययन करेंगे।, 1.3.1, काव्य / साहित्य का स्वरूप :, साहित्यशास्त्र के अंतर्गत काव्य और साहित्य एक ही अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं। प्राचीन काल में केवल, काव्य रचनाओं का ही सृजन किया जाता था। उस समय गद्य का विकास नहीं हुआ था। गद्य का विकास, आधुनिक काल की देन मानी जा सकती है। इसके बाद विभिन्न विधाओं का जन्म होने लगा । अब सभी विधाओं, के लिए 'साहित्य' शब्द प्रयुक्त होने लगा है। 'काव्य' शब्द केवल पद्य रचनाओं तक सीमित रह गया| आज, 'साहित्य' शब्द बहुप्रचलित और व्यापक बन गया है । लेकिन कई लोग वर्तमान समय में भी 'साहित्य' शब्द, की जगह 'काव्य' शब्द का इस्तेमाल करते हुए नजर आते हैं। यहाँ हम 'काव्य' शब्द का अर्थ साहित्य की, सभी विधाओं के प्रतिनिधि के रूप में ले रहे हैं। इस प्रकार जो 'साहित्य' का लक्षण है, वही 'काव्य' का लक्षण, भी माना जाएगा।
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मनुष्य को आनंदानुभूति प्रदान करने में काव्य का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। कवि कल्पनाओं और, भावनाओं का आधार लेकर मानव जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को अलग-अलग रूप में अंकित करने की, कोशिश करता है। काव्य जितना व्यापक है, उतना सूक्ष्म भी है। प्राचीन काल से ही काव्याचार्य काव्य के स्वरूप, एवं लक्षण को निरूपित करने का प्रयास करते रहे हैं। 'काव्य लक्षण' या काव्य स्वरूप का आशय उस परिभाषा, से है, जो सब ओर से सुसंगत तथा काव्य की विशिष्टता की परिचायक हो । इस संबंध में प्रत्येक काल में आचार्यों, के चिंतन तथा दृष्टिकोण में पर्याप्त अंतर रहा है। आज मनुष्य का जीवन गतिमय बन चुका है। वह भौतिक सुख-, सुविधाओं के पिछे अंधी दौड लगाता हुआ नजर आने लगा है । लेकिन ऐसे समय में भी साहित्य का महत्त्व, थोडा-सा भी कम नहीं हुआ है। आज भी मनुष्य आंतरिक भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए काव्य का ही, सहारा लेता हुआ नजर आने लगा है।, काव्य मनुष्य जीवन की भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने का काम करता है । काव्य मनुष्य, को हर समय उचित दिशा-निर्देशन करता रहता है। वह इन्सान में जीवन जीने की एक ललक और उमंग पैदा, करता है। बुद्धि तथा हृदय का समन्वय काव्य में होता है। साहित्य का आधार सत्यम्, शिवम और सुंदरम् होता, है। संसार में एकता स्थापित करने का कार्य साहित्य के माध्यम से ही होता है। वह मानव के बाह्य और आंतरिक, जगत् का वर्णन करता है। काव्य के स्वरूप को स्पष्ट रूप में समझने के लिए हमें भारतीय और पार्चात्य विद्वानों, के काव्य लक्षणों को देखना बहुत ही जरूरी है ।, 1.3.1.1 संस्कृत आचार्यों के काव्य-लक्षण :, * आचार्य भरतमुनि, भरतमुनि को संस्कृत काव्यशास्त्र का आदि आचार्य माना जाता है। उनका 'नाट्रशास्त्र' ग्रंथ संस्कृत, काव्यशास्त्र का प्रथम ग्रंथ है । आचार्य भरतमुनि ने इस ग्रंथ में नाटक में काव्य की स्थिति का स्पष्टीकरण करते, हुए लिखा है -, "मृदु ललित पदाढ्यं गूढं शब्दार्थहीन,, जनपद सुख बोध्यं युक्ति मन्नृत्ययोज्यम्, बहुकृतरसमार्ग संधिसन्धानयुक्त, स भवति शुभ काव्य नाटक प्रेक्षकाणाम् । ", अर्थात, नाटक को देखने वालों के लिए शुभ काव्य वह होता है, जिसकी रचना कोमल ललित पदों में, की गई हो, जिसमें शब्द और अर्थ गूढ न हो, जिसको जनसाधारण सरलता से समझ सके, जो तर्कसंगत हो,, जिससे, नृत्य, की योजना की जा सके, जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के रस स्वीकार, ( गए हो और जिसमें कथानक, संधियों का पूरा निर्वाह किया गया हो ।, इसमें नाटक के तत्त्वों का उल्लेख है, लेकिन भरतमुनि ने लालित्य, प्रसाद, रस आदि तत्त्वों को काव्य रूप, में स्वीकार किया है।