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14 देवताओं का जा, , अंचल : कुल्लू, , इस यात्रा वृत्तात के माध्यम से लेखक ने कुल्लू के भव्य प्राकृतिक सौंदर्य, वहाँ के लोगों के, रहन-सहन, धार्मिक आस्थाओं, विश्वासों, रीति-रिवाजों, प्रसिद्ध मंदिरों तथा अन्य दर्शनीय स्थानों, का वर्णन किया है। कुल्लू का नाम देवताओं का अचल (वैली ऑफ दि गॉडस) इसलिए, पड़ा, क्योंकि यहाँ असख्य देवी-देवता और विभिन्न ऋषि-मुनि यहाँ के आदिम निवाम्रियाँ दृवारा, पूजे जाते थे।, , , , , , , , आस्था, वह पक्षी 9» जो सुबह के अँधेरे में भी उजाले का अनुभव कर लेता है। - रवींद्रनाथ टैगोर, , ( हाँ से देवताओं का अंचल आरंभ होता है ', इसका बड़ा बढ़िया प्रमाण यह मिला कि मानवों की, य सृष्टि मोटर को देवताओं की सृष्टि मानव के पीछे-पीछे चलना पड़ा। मंडी से कुल्लू-प्रदेश में जाते, हुए व्यास नदी को रस्सी के झूलना पुल से पार करना पड़ता है। उस पर से लारी का जाना काफ़ी खतरनाक, है। लारी चार मील की रफ़्तार से तेज़ न चले, इसका प्रबंध यह किया गया है कि पुल का चौकीदार अपनी, पीठ पर एक तख्ती टाँगे (जिस पर बडे-बडे अक्षरों में लिखा रहता है-“चार मील रफ़्तार। इस आदमी के, पीछे-पीछे इसी की चाल से चलो!') आगे-आगे चलता है और मोटर उसके पीछे चलती है। पुल के दोनों, ओर पहरा रहता, ताकि चौकीदार की अनुमति के बिना कोई आर-पार न जा सके।, दस बजे के करीब हम लोग औट पहुँचे। यहाँ से एक सड़क शिमला जाती है। पहले यह मार्ग पैदल चलने, वाले साहसिक लोगों के लिए बड़ा भारी आकर्षण था, लेकिन अब पक्की सड॒क बन जाने से शिमला से, फ़ैशनेबल सैलानी 'वीक-एंड' बिताने के लिए मोटर में बैठकर सीधे मनाली आ सकते हैं। आस-पास का, सौंदर्य अब भी वही है, लेकिन चमत्कार नष्ट हो गया है।, कुछ आगे से एक मार्ग मणिकर्ण भी जाता है। मणिकर्ण तीर्थ स्थान है। यहाँ गरम पानी के कई सोते हैं,, जिनकी उष्णता अलग-अलग है। कोई नहाने के लिए ठीक है, तो किसी में चावल भी उबाले जा सकते हैं।, व्यास नदी के किनारे-किनारे सुंदर किंतु कहीं-कहीं खतरनाक सड़क पर बढ़ते हुए हम लोग बारह बजे, कुल्लू पहुँच गए।, (अपर प्राचीन हिंदू-सभ्यता का गहवारा है। यहाँ प्रत्येक कस्बे और ग्राम के अपने-अपने देवता हैं, जो, अपने-अपने मंदिरों में बैठे हुए लोगों की पूजा पाते हैं और साल में एक बार अपने-अपने रथों में बैठकर, कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित राम की उपासना के लिए जाते हैं। सैकड़ों देवी-देवताओं और उनके, मंदिरों के कारण तथा इस विराट देव-सम्मेलन के कारण ही कुल्लू प्रदेश का नाम 'देवताओं का अंचल', (बैली ऑफ़ दि गॉड्स) पड़ा है। ये असंख्य देवी-देवता और ऋषि-मुनि यहाँ के आदिम निवासियों दूवारा, , (०) 07.
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कक, , , , उस॒दिल कुल्लू में हम लोग दो घंटे ठहरे। भोजन किया और फिर लारी में बैठकर आगे बढ़े। मनाली-देवताओं, 1 # अंचल का ऊपरी छोर-कुल्लू से 23 मील दूर है। अध-बीच में कटराई की बस्ती है।, कटाई से चलकर मोटर कलाथ होती हुई मनाली जा पहुँची। मनाली या मुनाली ने यह नाम ' मुनाल” नामक, प्नी से पाया, जो यहाँ बहुतायत में होता है। फ़ेज़ेंट जाति का हिमालय का यह पक्षी अत्यंत सुंदर होता है।, इसके संबंध में यहाँ के लोगों में कई किंवदंतियाँ भी सुनने में आती हैं, लेकिन मैदानी भाग में रहने वाले, कक लोग मनाली को वहाँ के सेबों के कारण ही जानते हैं। सेब और नाशपाती के लिए मनाली शायद संसार, , में सबसे बढ़िया स्थान है।, , मताली की दो बस्तियाँ हैं-एक तो बाहर से आकर बसे हुए लोगों द्वारा बनाए हुए बँगलों और बाज़ार वाली, उस्तो को, जो 'दाना' कहलाती है; और दूसरी उससे करीब मीलभर ऊपर चलकर खास मनाली गाँव की।, मोटर 'दाना' तक जाती है। दाना से सड़क फिर व्यास नदी पार करके रोहतांग की जोत से होकर लाहौर, को चली जाती है। इसी मार्ग पर मनाली से दो मील की दूरी पर वशिष्ठ नाम का गाँव है, जहाँ गरम पानी, कुंड हैं और वशिष्ठ मंदिर भी है। कहते हैं कि वशिष्ठ ऋषि यहीं तपस्या करते-करते पाषाण हो गए, 4, उनकी पराषाण मूर्ति वहाँ पूजी भी जाती है। यहाँ पानी में गंधक की मात्रा काफ़ी है और यह स्वास्थ्य, के लिए बहुत अच्छा है।, , #हतांग की जोत पर ही व्यास-कुंड है। यहाँ से कुछ मील हटकर व्यास मुनि का स्थान है, जहाँ से व्यास, है. आ उद्गम है। रोहतांग का मार्ग बहुत रमणीक है। व्यास नदी के वेग से किस तरह पहाड़ के पहाड़, गए हैं, वह भी देखने की चीज़ है। कहीं कहीं तो नदी आठ-दस फुट चौड़ी दरार में चार-पाँच सौ, ध कक कार अदृश्य हो गई है, केवल स्वर सुनाई पड़ता है। इसका कारण यह है कि व्यास नदी बहुत, क नीचे डतरती है। अपने मार्ग के पहले पाँच मील में जितना नीचे उतर आती है, वह उतना अगले, का की मैं नहीं और उसके बाद में पाँच सौ मील में नहीं।, , दैसा पैन जोत के दूसरी ओर कोकसर पड़ाव है। यहाँ जाते हुए बर्फ़ के सौंदर्य का जो दृश्य दिखता है,, कक तहीं देखा। उसका न वर्णन हो सकता है , न चित्र खिंच सकता है। कुछ मीलों के दायरे, ' ऐ नो काले अंग 1 है, जिसके सब ओर ऊँची-ऊँची हिमाबृत चोटियाँ, उससे कुछ नीचे पहाड़ों, नै अपना कि प्याले के बीच में फिर बर्फ़ से छाया हुआ मैदान-मानो अभिमानी पर्वत-सरदारों, गहियो का कटि- प्रदेश तो ढक लिया है, लेकिन छाती दर्प से खोल रखी है...। इस स्थान से तीन, , डेदूगम है, ऊपर से ४ हैं ;, व्यास, मध्य से चंद्रा और भागा, जो आगे चलकर मिल जाती हैं।
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.. जाते हुए मार्ग दो, , न, , , , , , हा, , हर सम्मानित किया गया। उनकी मृत्यु 4 अप्रैल, 1987 को हुई थी। पे, , श्र द् हों ह पर चीड के जंगल में हिडिंबा देवी का मंदिर है। एक चीड़ कह, के आसंपास दी गा लें का चार-मंज़िला मंदिर दर्शनीय है। इसके दूवारों पर नक्काशी का, काम है, वह कई सौ बरस पुराना है। एक पटटे पर लेख भी खुदा हुआ है। मा से मनाली को ओर, बी काम है चट्टानों के बीच होकर गुज़्रता है, जो अपने आकार के कारण 'देवी का चूल्हा' के नाग, से प्रसिदूध है। कहते हैं कि हिडिंबा देवी मनुष्य को भून-भूनकर अपना भोजन तैयार करती थी। मनाली द, की बस्ती के ऊपरी छोर पर मनु रिखि का छोटा मंदिर है, विशेष सुंदर भी नहीं है; लेकिन मनु का एकमात्र, मंदिर होने के कारण यह विशेष महत्त्व रखता है।, मैं मनाली आया तो था स्वास्थ्य-लाभ करने, लेकिन सबसे बड़ी आकारक्षा यह थी कि एकांत में रहकर एक, बड़ा-सा उपन्यास लिख डालूँगा। जेल में रहते हुए उसका ढाँचा तैयार हुआ था और वह मैंने अंग्रेज़ी में पृ, ना भी डाला था; लेकिन जेल के चार वर्षो ने मुझे यह भी दिखा दिया था कि 8 । अभी लड़कपन बहुत, है। एक बड़े कैनवस पर मैंने एक विद्रोही के पूरे जीवन का चित्र खींचने की कोशिश की थी और जहाँ, तक चित्र का संबंध था, वह काफी सच्चा उतरा था, पर जिस भूमि पर वह खींचा गया था- भारतीय समाज, और संस्कृति - उसका ज्ञान मेरा अधूरा ही था, इसलिए चित्र ठीक नहीं था। अब नए अनुभव के आधाए, पर परिवर्तन और परिष्कार करके मैं उसे फिर हिंदी में लिखना चाहता था। उपन्यास को मैं जीवन-दर्शर, मानता हूँ और इस दृष्टि से, गंभीर चीज़ लिखने के लिए एकांत ज़रूरी था। तभी मैं 'परिचित सभ्य' लोगें, की बस्ती से अलग मनाली में आ जमा था।, मनाली अपनी स्थिति के कारण ही नहीं, सौंदर्य के कारण भी देवताओं के अंचल का सुनहला ऊपरी छोर, है। दृष्टि-क्षेत्र में सीखचे-ही-सींखचे देखने की आदी मेरी आँखें इस विराट सौंदर्य को पीती जाती थीं और, मान्रों अपने पर विश्वास नहीं कर पाती थीं। सींखचों का संस्कार इतना गहरा पड़ गया था कि मैं बाहर, बिखगी हुई सौंदर्य-राशि को देखकर भी भीतर में अपने पुराने बंदी-जीवन की स्मृतियाँ निकालता जात, था-जैसे शाही पोशाक में लिपटकर भी भिखमंगा अपनी फटी हुई और थिगरों से भूषित गुदड़ी को नहीं, भूलता। लेकिन मनाली ने मानो उन स्मृतियों पर अपनी छाप डाल दी-बे अपने आप में कट् स्मृतियाँ मान, सुंदरता के एक ढाँचे में ढलकर निकलने लगीं।, अगले दिन प्रातःकाल ही देवताओं के अंचल में बैठे हुए एक क्षुद्र मानव ने पाया कि वह भी देवों का, समकक्षी हो गया है, स्रष्टा हो गया है, वह लिखने लगा...।, , -सच्चिदानंद होरानंद वात्स्यायन 'अड्ेव ।, , | “लेखक परिचयसच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ' अज्ञेय' का जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया, जिले के कुशीनगर नामक गाँव में हुआ था। वे प्रसिदृध लेखक , कवि और उपन्यासकार थे। उन्हें, वर्ष 1964 में 'साहित्य अकादमी ' पुरस्कार, वर्ष 1979 में 'कितनी नावों में कितनी बार', . के लिए 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' वर्ष 1983 में 'भारत भारती' पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों